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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो सति पि सूचिपासवेधनपटिभागा तसम्पयुत्ता पञा पि बलवती इच्छितब्बा। ताहि च पन सतिपाहि समन्नागतेन भिक्खुना न ते अस्सासपस्सासा अझत्र पकतिफुट्ठोकासा परियेसितब्बा।
यथा पन कस्सको कसिं कसित्वा बलीवद्दे मुञ्चित्वा गोचरमुखे कत्वा छायाय निसिन्नो विस्समेय्य। अथस्स ते बलीवद्दा वेगेन अटविं पविसेय्यु। यो होति छेको कस्सको, सो पुन ते गहेत्वा योजेतुकामो न तेसं अनुपदं गन्त्वा अटविं आहिण्डति, अथ खो रस्मि च पतोदं च गहेत्वा उजुकमेव तेसं निपानतित्थं गन्त्वा निसीदति वा निपज्जति वा। अथ ते गोणे दिवसभागं चरित्वा निपानतित्थं ओतरित्वा न्हत्वा च पिवित्वा च पच्चुत्तरित्वा ठिते दिस्वा रस्मिया बन्धित्वा पतोदेन विज्झन्तो आनेत्वा योजेत्वा पुन कम्मं करोति; एवमेव तेन भिक्खुना न ते अस्सासपस्सासा अज्ञत्र पकतिफुट्ठोकासा परियेसितब्बा। सतिरस्मि पन पञापतोदं च गहेत्वा पकतिफुट्ठोकासे चित्तं ठपेत्वा मनसिकारो पवत्तेतब्बो। एवं हिस्स मनसिकरोतो न चिरस्सेव ते उपट्ठहन्ति, निपानतित्थे विय गोणा। ततोनेन सतिरस्मिया बन्धित्वा तस्मि येव ठाने योजेत्वा पञापतोदेन विज्झन्तेन पुनप्पुन कम्मट्ठानं अनुयुञ्जितब्बं।
तस्सेवमनुयुञ्जतो न चिरस्सेव निमित्तं उपट्ठाति। तं पनेतं न सब्बेसं एकसदिसं होति। अपि च खो कस्सचि सुखसम्फस्सं उप्पादयमानो तूलपिचु विय कप्पासपिचु विय वातधारा विय च उपट्ठाती ति एकच्चे आहु।
समय सूई के समान स्मृति भी, एवं सूई के समान उससे सम्प्रयुक्त प्रज्ञा भी बलवती होनी चाहिये। उन स्मृति एव प्रज्ञा से सम्पन्न भिक्षु को उन आश्वास-प्रश्वास को अन्यत्र नहीं, अपितु स्वभावत: स्पृष्ट स्थान में ही खोजना चाहिये। ..
जैसे कोई कृषक खेतों को जोतकर, बैलों को चरने के लिए छोड़ दे और छाया में बैठकर विश्राम करे। तब उसके वे बैल तेजी से जङ्गल में घुस जाँय (ऐसी स्थिति में) जो चतुर कृषक होता है, वह उन्हें फिर से पकड़ कर जोतने के लिये उनके पीछे पीछे जाकर जङ्गल में भटकता नहीं रहता, वह तो रस्सी और हाँकने का डण्डा लेकर सीधे घाट पर, जहाँ वे आते हैं, जाकर
बैठता या लेटता है। जब वे बैल दिनभर चरने के बाद घाट पर आकर नहाकर और (जल) पीकर, निकलकर खड़े होते हैं, तब वह उन्हें देखकर, रस्सी से बाँध, लाठी से हाँकता हआ लाकर जोत देता है और फ़िर से खेती का काम करता है। वैसे ही उस भिक्षु को स्पृष्ट स्थान के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र आश्वास प्रश्वास का अन्वेषण नहीं करना चाहिये, अपितु स्मृतिरूपी रस्सी और प्रज्ञारूपी लाठी लेकर स्वभावतः स्पष्ट स्थान पर चित्त को स्थिर कर मनस्कार करता है, तब शीघ्र ही वे उपस्थित होते हैं, जैसे घाट पर बैल। तब उसे स्मृतिरूपी रस्सी से बांधकर, उसी स्थान पर ले जाकर जोतकर, प्रज्ञारूपी लाठी से हाँकते हुए, पुनः पुनः कर्मस्थान में लगना चाहिये।
उसके इस प्रकार लगने पर जल्दी ही निमित्त जान पड़ने लगता है। किन्तु वह सभी के लिये एक जैसा नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं कि किसी किसी को स्पर्श में सुखद, सेमर की रूई या हवा के बहाव (वातधारा) के तुल्य जान पड़ता है।
१. तूलपिचू ति। मुदु कप्पासजाति एव।