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विसुद्धिमग्गो गच्छति। तत्र नातितिक्खपञो एवं वत्ता होति-"किं सज्झायो नाम एस ओट्टपरियाहतत्तं कातुं न देति, एवं सज्झाये करियमाने कदा तन्ति परियोसानं गमिस्सती" ति? एवमेव तिक्खपञस्स केसादिवसेन वित्थारतो धातुपरिग्गहो पपञ्चतो उपट्ठाति। 'यं थद्धलक्खणं, अयं पथवीधातू' ति आदिना नयेन सोपतो मनसिकरोतो कम्मट्ठानं पाकटं होति। इतरस्स तथा मनसिकरोतो अन्धकारं अविभूतं होति। केसादिवसेन वित्थारतो मनसिकरोन्तस्स पाकटं होति।
१५. तस्मा इमं कम्मट्ठानं भावेतुकामेन तिक्खपञ्चेन ताव रहोगतेन पटिसल्लीनेन सकलं पि अत्तनो रूपकायं आवजेत्वा, यो इमस्मि काये थद्धभावो वा खरभावो वा-अयं पथवीधातु। यो आबन्धनभावो वा द्रवभावो वा-अयं आपोधातु । यो परिपाचनभावो वा उण्हभावो वाअयं तेजोधातु। यो वित्थम्भनभावो वा समुदीरणभावो वा-अयं वायोधातू ति। एवं सङित्तेन धातुयो परिग्गहेत्वा पुनप्पुनं पथवीधातु आपोधातू ति धातुमत्ततो निस्सत्ततो निजीवतो आविज्जितब्बं, मनसिकातब्बं, पच्चवेक्खितब्बं। .
तस्सेवं वायममानस्स न चिरेनेव धातुप्पभेदावभासनपञापरिग्गहितो सभावधम्मारम्मणत्ता अप्पनं अप्पत्तो उपचारमत्तो समाधि उप्पज्जति।
१६. अथ वा पन-ये इमे चतुन्नं महाभूतानं निस्सत्तभावदस्सनत्थं धम्मसेनापतिना"अद्धिं च पटिच्च न्हालं च पटिच्च मंसं च पटिच्च चम्मं च पटिच्च आकासो परिवारितो रूपं
को एक दो बार पढ़ने के बाद) केवल आरम्भ एवं अन्त (के पाठ) का ही पारायण करता है। ऐसी स्थिति में जिसकी प्रज्ञा अतितीक्ष्ण नहीं है, वह यों कहता है-"यह कैसा पारायण है भला? यह (वाचक) तो (सहपाठी को) होंठ तक हिलाने का मौका नहीं देता। यदि ऐसा पढ़ा जायगा तो कब तक हम पाठ याद कर पायेंगे! वैसे ही तीक्ष्णप्रज्ञ को केश आदि के अनुसार विस्तारपूर्वक धातु-परिग्रह प्रपञ्च जान पड़ता है। "जो स्तम्भ-लक्षण है वह पृथ्वीधातु है" आदि प्रकार से संक्षेपतः मनस्कार करते हुए कर्मस्थान प्रकट होता है। यदि दूसरा (मन्दबुद्धि) ऐसा करता है, तो उसे (कर्मस्थान) अस्पष्ट, अप्रकट होता है। (मन्दबुद्धि को तो) केश आदि के अनुसार विस्तारपूर्वक मनस्कार करने से ही (कर्मस्थान) प्रकट होता है।
१५. अतः इस कर्मस्थान की भावना के अभिलाषी तीक्ष्णप्रज्ञ को एकान्त में जाकर अपने समस्त रूपकाय की ओर ध्यान केन्द्रित करते हुए, संक्षेप में धातुओं का ग्रहण (मनन) यों करना चाहिये-इस काया में जो स्तम्भ या रूक्ष स्वभाव का है, वह पृथ्वीधातु है। जो बन्धनभाव या द्रवभाव है, वह अप् धातु है। जो परिपाचन या उष्ण स्वभाव का है, वह तेजोधात है। जो विष्टम्भन या चलन स्वभाव का है वह वायुधातु है। यों संक्षेप में धातु के रूप में ग्रहण कर, तब पुनः पुनः, पृथ्वीधातु, अप् धातु–यों धातुमात्र के रूप में, निःसत्त्व के रूप में, निर्जीव के रूप में ध्यान देना चाहिये, मनस्कार करना चाहिये, प्रत्यवेक्षण करना चाहिये।
यो प्रयास करने वाले को शीघ्र ही धातु के प्रभेदों का स्पष्ट भान कराने वाली प्रज्ञा के बल से वह समाधि उत्पन्न होती है, जो उपचारमात्र होती है; क्योंकि स्वभाव धर्म को आलम्बन बनाने से (वह समाधि) अर्पणा (के स्तर को) नहीं प्राप्त कर पाती।
१६. अथवा, जो कि धर्मसेनापति (स्थविर सारिपुत्र) द्वारा इन चार महाभूतों के निःसत्त्व