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समाधिनिद्देसो
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तत्थ अनुपादिनानं कप्पवुट्ठाने विकारमहत्तं पाकटं होति। उपादिनानं धातुक्खोभकाले। तथा हि
भूमितो वुट्टिता याव ब्रह्मलोका विधावति। अच्चि अच्चिमतो लोके डरहमानम्हि तेजसा॥ कोटिसतसहस्सेकं चक्कवाळं विलीयति। कुपितेन यदा लोंको सलिलेन विनस्सति ॥ कोटिसतसहस्सेकं चक्कवाळं विकीरति । वायोधातुप्पकोपेन यदा लोको विनस्सति॥ पत्थद्धो भवति कायो दट्ठो कट्ठमुखेन वा। पथवीधातुप्पकोपेन होति कट्ठमुखे व सो॥ पूतिको भवति कायो दट्ठो पूतिमुखेन वा। आपोधातुप्पकोपेन होति पूतिमुखे व सो॥ सन्तत्तो भवति कायो दट्ठो अग्गिमुखेन वा। तेजोधातुप्पकोपेन होति अग्गिमुखे व सो॥ सञ्छिन्नो भवति कायो दट्ठो सत्थमुखेन वा।
महाविकार (का आधार) होती हैं। इनमें, जो कर्म द्वारा उपार्जित नहीं है, उसके विकार की महत्ता कल्पारम्भ के समय प्रकट होती है, एवं कर्मोपार्जित की धातु-क्षोभ के समय। यथा
अग्नि द्वारा प्रलय के समय अग्नि की लपट भूमि से ऊपर उठती हुई ब्रह्मलोक तक तेजी से जा पहुँचती है। जिस समय जल के कुपित होने से लोक का विनाश होता है, उस समय एक करोड़ लाख (=१०,००,००,००,००,००० दस खरब) की सीमा वाला चक्रवाल (ब्रह्माण्ड) विलीन हो जाता है। - जब वायु धातु के प्रकोप से लोक नष्ट होता है, तब एक करोड़ लाख की सीमा वाला चक्रवाल बिखर जाता है। अथवा,
__ जैसे काष्ठमुख सर्प द्वारा डंसे जाने पर शरीर अकड़ जाता है, वैसे ही पृथ्वी धातु के कुपित होने पर (यह लोक) काष्ठमुख (सर्प के मुख) में गये हुए के समान हो जाता है।
जैसे पूतिमुखं द्वारा डंसा हुआ शरीर सड़ जाता है वैसे ही अब्धातु के प्रकोप से (लोक) पूतिमुख (के मुख) में गये हुए के समान होता है। जैसे अग्निमुख द्वारा डंसे जाने पर शरीर सन्तप्त हो जाता है, वैसे ही तेजोधातु के कुपित होने पर (लोक) अग्निमुख (के मुख) में गये हुए के समान हो जाता है।
जैसे शस्त्रमुख द्वारा डंसा गया शरीर छिन्न भिन्न (जोड़-जोड़ से टूटा हुआ) हो जाता है, वैसे ही वायुधातु के प्रकोप से (लोक) शस्त्रमुख (के मुख) में गये हुए के समान हो जाता है। १. 'काष्ठमुख', 'पूतिमुख' आदि का अर्थ 'काठ के समान मुख' 'सड़ा हुआ मुख' आदि मानना असंगत
प्रतीत होता है। यहाँ काष्ठमुख आदि का अभिप्राय सम्भवतः यह है : वह सर्प जिसके डंसने पर शरीर काष्ठ की तरह अकड़ जाता है, आदि।-अनु०