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इद्धिविधनिद्देसो
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तिरोकुड्डगमनादिकं पाटिहारियं २०. तिरोकुटुं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असजमानो गच्छति, सेय्यथापि आकासे ति। एत्थ 'तिरोकुटुं' ति। परकुटुं। कुड्डस्स परभागं ति वुत्तं होति । एस नयो इतरेसु। कुड्डो ति च गेहभित्तिया एवं अधिवचनं। पाकारो ति गेह-विहार-गामादीनं परिक्खेपपाकारो। पब्बतो ति पंसुपब्बतो वा, पासाणपब्बतो वा। असजमानो ति अलग्गमानो। सेय्यथापि आकासे ति। आकासे विय।
एवं गन्तुकामेन पन आकासकसिणं समापज्जित्वा वुट्ठाय कुटुं वा पाकारं वा सिनेरुचक्कवाळेसु पि अञ्जतरं पब्बतं वा आवज्जित्वा कतपरिकम्मेन 'आकासो होतू' ति अभिट्ठातब्बो, आकासो येव होति । अधो ओतरितुकामस्स, उद्धं वा आरोहितुकामस्स सुसिरो होति, विनिविज्झित्वा गन्तुकामस्स छिद्दो। सो तत्थ असज्जमानो गच्छति।।
२१. तिपिटकचूळाभयत्थेरो पनेत्थाह-"आकासकसिणसमापज्जनं, आवुसो, किमत्थियं? किं हत्थि-अस्सादीनि अभिनिम्मिनितुकामो हत्थि-अस्सादिकसिणानि समापज्जति? ननु यत्थ कत्थचि कसिणे परिकम्मं कत्वा अट्ठ समापत्तिवसीभावो येव पमाणं, यं यं इच्छति तं तदेव होती" ति? भिक्खू आहंसु-"पाळिया, भन्ते, आकासकसिणं येव आगतं, तस्मा अवस्समेतं वत्तब्बमेतं' ति। तत्रायं पालि-"पकतिया आकासकसिणसमापत्तिया लाभी होति, तिरोकुटुं
'दीवार के आरपार गमन' आदि प्रातिहार्य २०. तिरोकु९ तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असजमानो गच्छति, सेय्यथापि आकासे- यहाँ, तिरोकुटुं-दीवार के आर-पार। अर्थात् दीवार के उस ओर। यही विधि अन्यों में (भी) है। कुड्डो-यह घर की भित्ति (दीवार) का पर्याय है। पाकारो (प्राकार)-घर, विहार, गाँव आदि की चारदीवारी। पब्बतो-मिट्टी का पर्वत या पाषाण का पर्वत। असजमानो-न लगते हुए। सेय्यथापि आकासे-जैसे आकाश में।
यों, गमनाभिलाषी को आकाशकसिण में समापन्न होने के पश्चात् उठकर दीवार, प्राकार अथवा सुमेरु या चक्रवालों (लोकों) में से किसी पर्वत का विचार कर, परिकर्म करके, ('यह दीवार आदि) आकाश (खाली स्थान) हो जाय'-यों अधिष्ठान करना चाहिये। (ऐसा करते ही) आकाश ही ही जाता है। नीचे उतरना या ऊपर चढ़ना चाहने वाले के लिये खोखला (बीच में खाली) होता है। भेद कर जाना चाहने वाले के लिये छिद्र होता है। वह उसमें न सटता हुआ चला जाता है।
२१. किन्तु, त्रिपिटकधर चूळाभयस्थविर ने इस प्रसङ्ग में कहा-"आयुष्मन्, आकाशकसिण में समापन्न होने का क्या लाभ है? क्या हाथी-घोड़े आदि का निर्माण करने का अभिलाषी हाथी-घोड़े आदि कसिणों में समापन्न होता है? क्या ऐसा नहीं है कि किसी भी कसिण में परिकर्म कर आठ समापत्तियों में निपुणता प्राप्त करना ही पर्याप्त है, इसी से जो जो चाहता है, वह वह ही होता है?" भिक्षुओं ने कहा-“भन्ते! पालि में आकाशकसिण ही आया हुआ है, अतः इसे अवश्य कहना चाहिये।"
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