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अभिनिद्देसो
दक्खिणाय, हेट्ठिमाय, उपरिमाय दिसाय, पुरत्थिमाय अनुदिसाय, पच्छिमाय... उत्तराय... दक्खिणाय अनुदिसाय सद्दानं सद्दनिमित्तं मनसिकातब्बं । ओळारिकानं पि सुखुमानं पि सद्दानं सद्दनिमित्तं मनसिकातब्बं । तस्स ते सद्दा पाकतिकचित्तस्सा पि पाकटा होन्ति । परिकम्मसमाधिचित्तस्स पन अतिविय पाकटा ।
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४. तस्सेवं सद्दनिमित्तं मनसिकरोतो, 'इदानि दिब्बसोतधातु उप्पज्जिस्सती' ति तेसु सद्देसु अञ्ञतरं आरम्मणं कत्वा मनोद्वारावज्जनं उप्पज्जति । तस्मि निरुद्धे चत्तारि पञ्च वा जवनानि जवन्ति, येसं पुरिमानि तीणि चत्तारि वा परिकम्म उपचारानुलोमगोत्र भुनामकानि कामावचरानि, चतुत्थं पञ्चमं वा अप्पनाचित्तं रूपावचरं चतुत्थज्झानिकं ।
तत्थ यं येन अप्पनाचित्तेन सद्धिं उप्पन्नं जाणं, अयं दिब्बसोतधातू ति वेदितब्बा । ततो परं तस्मि सोते पतितो होति। तं थामजातं करोन्तेन – 'एत्थन्तरे सद्दं सुणामी' ति एकङ्गुलमत्तं परिच्छिन्दित्वा वड्ढेतब्बं। ततो द्वङ्गुल-चतुरङ्गुल-अङ्गुल- विदत्थि-रतन-अन्तोगब्भ-पमुखपासाद-परिवेण-सङ्घाराम - गोचरगाम - जनपदादिवसेन याव चक्कवाळं, ततो वा भिय्यो पि परिच्छिन्दित्वा परिच्छिन्दित्वा पि सद्दे पुन पादकज्झानं असमापज्जित्वा पि अभिज्ञान सुणाति येव। एवं सुणन्तो च सचे पि याव ब्रह्मलोका सङ्घभेरिपणवादिसद्देहि एककोलाहलं होति, पाटियेक्कं ववत्थपेतुकामताय सति 'अयं सङ्खसद्दो', 'अयं भेरिसद्दो' ति ववत्थपेतुं सक्कोति वा ति । दिब्बसोतधातुकथा निट्ठिता ॥
दक्षिण, नीचली ( अध:), ऊपरी दिशा, पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण दिशा की उपदिशा के शब्दों, शब्दनिमित्तों पर ध्यान देना चाहिये । स्थूल एवं सूक्ष्म-दोनों ही प्रकार के शब्दों एवं शब्दनिमित्तों पर ध्यान देना चाहिये। उसके वे शब्द साधारण (प्राकृतिक) चित्त को भी स्पष्ट प्रतीत होते हैं, परिकर्म समाधिचित्त के लिये तो अत्यधिक प्रकट |
४. जब वह (साधक) शब्द - निमित्त पर यों ध्यान देता है, तब 'इस समय दिव्य श्रोत्रधातु उत्पन्न होगी' – ऐसा ( विचार आने पर ) उन शब्दों में से किसी एक को आलम्बन बनाकर मनोद्वारावर्जन उत्पन्न होता है। उसके निरुद्ध होने पर चार या पाँच जवनचित्त जवन करते हैं। इनमें पूर्व के तीन या चार परिकर्म, उपचार, अनुलोम एवं गोत्रभू नामक कामावचर (भूमि के चित्त होते हैं), तथा चौथा पाँचवाँ अर्पणाचित्त चतुर्थ ध्यान वाला होता है।
इनमें, उस अर्पणाचित्त के साथ जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे दिव्य श्रोत्रधातु समझना चाहिये । उसके पश्चात् (दिव्य श्रोत्रधातु) उस (ज्ञान) श्रोत्र में समा जाता है। उसे सबल बनाने के अभिलाषुक को 'इस (परिधि) के भीतर के शब्द सुनूँ' - यों पहले एक अङ्गुल की सीमा निर्धारित कर, (शक्ति को) बढ़ाना चाहिये। तब दो अङ्गुल, चार अङ्गुल, आठ अङ्गुल, एक बालिश्त, एक हाथ, कमरे का भीतरी भाग, बरामदा, प्रासाद, चारदीवारी, सङ्घाराम, भिक्षाटन के लिये चुना गया ग्राम एवं जनपद आदि के अनुसार (क्रमशः) बढ़ाना चाहिये ।
यों अभिज्ञा को प्राप्त कर चुका वह (योगी) आधारभूत ध्यान के आलम्बन द्वारा स्पृष्ट क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले शब्दों को अभिज्ञा-ज्ञान से सुनता ही है, फिर भले ही वह पुनः आधारभूत ध्यान में समापन्न न हुआ हो । यों सुनते समय यदि ब्रह्मलोक तक भी शङ्ख, भेरी, नगाड़े आदि