Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 345
________________ ३१८ विसुद्धिमग्गो २. चेतोपरियाणकथा ५. चेतोपरियजाणकथाय-चेतापरियाणाया' ति। एत्थ परियाती ति परियं। परिच्छिन्दती ति अत्थो। चेत्सो परियं चेतोपरियं। चेतोपरियं च तं जाणं चा ति चतोपरियाणं। तदत्थाया ति वुत्तं होति । परसत्तानं ति। अत्तानं ठपेत्वा सेससत्तानं। परपुरगलानं ति। इदं पि इमिना एकत्थमेव। वेनेय्यवसेन पन देसनाविलासेन च व्यञ्जननानत्तं कतं। चेतसो चेतो ति। अत्तनो चित्तेन तेसं चित्तं । परिच्च पजानाती ति। परिच्छिन्दित्वा सरागादिवसेन नानप्पकारतो जानाति। . ६. कथं पनेतं जाणं उप्पादेतब्बं ति? एतं हि दिब्बचक्खुवसेन इज्झति। तं एतस्स परिकम्म। तस्मा तेन भिक्खुना आलोकं वड्डत्वा दिब्बेन चक्खुना परस्स हदयरूपं निस्साय वत्तमानस्स लोहितस्स वण्णं पस्सित्वा चित्तं परियेसितब्बं । यदा हि सोमनस्सचित्तं वत्तति, तदा रत्तं निग्रोधपक्कसदिसं होति। यदा दोमनस्सचित्तं वत्तति, तदा काळकं जम्बुपक्कसदिसं। यदा उपेक्खाचित्तं वत्तति, तदा पसन्नतिलतेलसदिसं।। तस्मा तेन 'इदं रूपं सोमनस्सिन्द्रियसमुट्ठान', 'इदं दोमनस्सिन्द्रियसमट्टानं', 'इदं के शब्दों से मिला-जुड़ा कोलाहल हो रहा हो, तो प्रत्येक का पृथक् निश्चय करने की इच्छा होने पर 'यह शङ्ख का शब्द है', 'यह भेरी का शब्द है'-यों निश्चय भी करता है। दिव्यश्रोत्रधातु का वर्णन सम्पन॥ चेतःपर्यायज्ञान ५. चेत:पर्यायज्ञान के वर्णन में, चेतोपरियजाणाय-यहाँ, (सराग आदि के रूप में) पर्याय (निश्चय, वर्गीकरण) करता है, अत: पर्याय है। अर्थात् परिच्छेद (सीमा निर्धारण) करता है। चित्त का पर्याय चेत:पर्याय। वह चेतःपर्याय है एवं ज्ञान है, अतः चेत:पर्यायज्ञान है। उसके लिये यह कहा गया है। परसत्तानं-स्वयं के अतिरिक्त शेष सत्त्वों का। परपुग्गलानं-इसका भी वही अर्थ है। किन्तु विनेयजनों के अनुसार एवं देशना की रोचकता के लिये शब्दों का नानात्व किया गया है। चेतसा चेतो-अपने चित्त से उनके चित्त को। परिच्च पजानाति-परिच्छेद कर, 'सराग' आदि (भेद) के अनुसार, नाना प्रकार से जानता है। ६. किन्तु इस ज्ञान को कैसे उत्पन्न करना चाहिये? यह दिव्यचक्षु द्वारा सिद्ध होता है, जो इसका परिकर्म है। इसलिये उस भिक्षु की आलोक बढ़ाकर दिव्यचक्षु द्वारा दूसरे के हृत्पिण्ड के सहारे वर्तमान रक्त का रंग देखकर, चित्त का ज्ञान करना चाहिये; क्योंकि जब सौमनस्य (से युक्त) चित्त होता है, तब रक्त लाल, पके बरगद (के फल) के रंग का होता है। जब दौर्मनस्ययुक्त चित्त होता है, तब पके हुए काले जामुन फल के समान। जब उपेक्षा-चित्त होता है, तब तिल के शुद्ध तैल के समान। इसलिये उसे 'यह रूप सौमनस्येन्द्रिय से उत्पन्न है', 'यह दौर्मनस्येन्द्रिय से उत्पन्न है'१. "चेतोपरियाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानाति, सरागं वा चित्तं..वीतरागं वा चित्तं ...पे०... अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तं ति पजानाति"-दी०नि० १४८८।

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