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विसुद्धिमग्गो
२. विसुद्धायाति । परिसुद्धाय, निरुपक्किलेसाय । अतिक्कन्तमानुसिकाया ति मनुस्सूपचारं अतिक्कमित्वा सद्दसवनेन मानुसिकं मंससोतधातुं अतिक्कन्ताय, वीतिवत्तित्वा ठिताय । भोस सुतीति । द्वे सद्दे सुणाति । कतमे द्वे? दिब्बे च, मानुसे च । देवानं च मनुस्सानं च सद्दे ति वुत्तं होति । एतेन पदेसपरियादानं वेदितब्बं । ये दूरे सन्तिके चा ति । ये सद्दा दूरे परचक्कवाळे पि, ये च सन्तिके अन्तमसो सदेहसन्निस्सितपाणकसद्दा पि, ते सुणाती ति वुत्तं होति । एतेन निप्पदेसपरियादानं वेदितैब्बं ।
३. कथं पनायं उप्पादेतब्बा ति ? तेन भिक्खुना अभिज्ञपादकज्झानं समापज्जित्वा वुट्ठाय परिकम्मसमाधिचित्तेन पठमतरं पकतिसोतपथे दूरे ओळारिको अरत्रे सीहादीनं सद्दी आवजितब्बो । विहारे गण्डिसद्दो, भेरिसद्दो, सङ्घसद्दो, सामणेरदहरभिक्खूनं सब्बत्थामेन सज्झायन्तानं सज्झायनसद्दो, पकतिकथं कथेन्तानं " किं भन्ते, किं आवुसो" ति आदिसद्दो, सकुणसद्दो, वातसद्दो, पदसद्दो, पक्कुथितउदकस्स चिच्चिटायनसद्दो, आतपे सुस्समानतालपण्णसद्दो, कुन्थकिपिल्लिकादिसद्दो ति एवं सब्बोळारिकतो पभुति यथाक्कमेन सुखुमसद्द आवज्जितब्बा ।
तेन पुरत्थिमाय दिसाय सद्दानं सद्दनिमित्तं मनसिकातब्बं । पच्छिमाय उत्तराय निर्जीव (= नैरात्म्य) होने के अर्थ में (क्रमशः) श्रोत्र ( एवं ) धातु है। श्रोत्रधातु का कृत्य करने से एवं श्रोत्रधातु के समान होने से भी श्रोत्रधातु है । उस दिव्य श्रोत्रधातु से ।'
२. विसुद्धाय - परिशुद्ध से, उपक्लेशों से रहित से। (विशुद्ध - यह श्रोत्रधातु का विशेषण है ।) अतिक्कन्तमानुसिकाय - मनुष्यों के क्षेत्र (उपचार) का अतिक्रमण करते हुए शब्द करने से, जिसने मानुषिक (मांसनिर्मित) श्रोत्रधातु का अतिक्रमण कर दिया है, उससे । (अर्थात्, जो परे (दूर) होकर स्थित है, उससे ।
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उभो सद्दे सुणाति — दोनों (प्रकार के) शब्दों को सुनता है। कौन से दो ? दिव्य ए मानवीय। अर्थात् देवताओं और मनुष्यों के शब्दों को । इसके द्वारा क्षेत्रविशेष (प्रदेश) का ग्रह समझना चाहिये। ये दूरे सन्तिके च - अर्थात् जो शब्द दूर, दूसरे चक्रवालों भी में हों, एवं जं समीप हो, यहाँ तक कि अपने शरीर में आश्रय लिये हुए जीवों के भी शब्द उन्हें सुनता है। इ (कथन) से समग्र का ग्रहण समझना चाहिये ।
३. किन्तु इसे उत्पन्न कैसे करना चाहिये ? उस भिक्षु को अभिज्ञा के आधारभूत ध्यान में समापन होने के पश्चात् उठकर, परिकर्म समाधिचित्त द्वारा, सर्वप्रथम प्राकृतिक श्रोत्र की परिधि में आने वाले दूर के स्थल शब्दों का आवर्जन करना चाहिये; (जैसे) वन में सिंह आदि का शब्द विहार में घण्टे का शब्द, भेरी का, शङ्ख का, श्रामणेर ( नवयुवक ) भिक्षुओं के एक साथ पा करते समय पाठ का, शब्द एवं साधारण वार्तालाप के शब्द जैसे 'क्या है, भन्ते', क्या है, आयुष्मन् आदि, वायु का शब्द, पदचाप, उबलते पानी के खदखदाने का शब्द, धूप में सूखते हुए ताड़ के पत्ते का (खड़खड़), एवं चींटी आदि के शब्द | यों, पूरी तरह स्थूल (शब्दों) से आरम्भ कर क्रमशः सूक्ष्म शब्दों का आवर्जन करना चाहिये।
उसे पूर्व दिशा के शब्दों, शब्द के संकेतों (निमित्तों) पर ध्यान देना चाहिये। पश्चिम, उत्तर,