Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 341
________________ ३१४ विसुद्धिमग्गो परिकम्मं कत्वा वुत्तनयेनेव अधिट्ठाति–'तस्स अब्भन्तरे अञ्जो कायो होतू' ति । सो तं मुञ्जम्हा ईसिकं विय, कोसिया असिं विय, करण्डाय अहिं विय च अब्बाहति । तेन वुत्तं-"इध भिक्खु इमम्हा काया अखं कायं अभिनिम्मिनाति रूपिं मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं। सेय्यथापि पुरिसो मुझम्हा ईसिकं पबाहेय्य, तस्स एवमस्स-अयं मुञ्जो अयं ईसिका, अञो मुञ्जो अञा ईसिका, मुञ्जम्हा त्वेव ईसिका पवाळ्हा" (खु० नि० ५/३७३) ति आदि। एत्थ च यथा ईसिकादयो मुञ्जादीहि सदिसा होन्ति, एवं मनोमयरूपं इद्धिमता सदिसमेव होती ति दस्सनत्थं एता उपमा वुत्ता ति। अयं मनोमया इद्धि॥ .... इति साधुजनपामोज्जत्थाय कते विसुद्धिमग्गे इद्धिविधनिद्देसो नाम द्वादसमो परिच्छेदो॥ ३. मनोमय ऋद्धि ५०. मनोमय ऋद्धि करने का अभिलाषी जब आधारभूत ध्यान से उठकर काय का आवर्जन करता है एवं उक्त प्रकार से ही 'खोखला (रिक्त) हो जाय'-यों अधिष्ठान करता है, तब खोखला हो जाता है। तब उस (खोखली काया) के भीतर अन्य काया का आवर्जन कर परिकर्म करके. उक्त विधि से ही अधिष्ठान करता है-'उसके भीतर अन्य काया हो जाय'। वह उसे गूंज से सींक के समान, कोष से तलवार के समान, एवं पिटारी से साँप के समान बाहर निकालता है। इसलिये कहा गया है-"यहाँ भिक्षु इस काया से दूसरे का निर्माण करता है, जो रूपी, मनोमय, सर्वाङ्गपूर्ण एवं अहीनेन्द्रिय होती है। जैसे कोई पुरुष पूँज से घास को खींचकर बाहर निकाले एवं उसे ऐसा लगे-'यह मूंज है, यह घास है, यहाँ पूँज अन्य है, घास अन्य, पूँज से ही घास निकाली गयी है" (खु० ५/३४३)। आदि (वैसे ही यहाँ भी हैं) यहाँ, जैसे मूंज आदि घास (सींक) आदि के समान होते हैं, इसे प्रदर्शित करने के लिये यह उपमा दी गयी है। यह मनोमय ऋद्धि है। यों, साधुजनों के प्रमोदहेतु विरचित विशुद्धिमार्ग ग्रन्थ में ऋद्धिविधनिर्देश नामक द्वादश परिच्छेद सम्पन्न । १. अब्बाहति ति। उद्धरति।

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