Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 340
________________ इद्धिविधनिद्देसो ३१३ २. विकुब्बना इद्धि ४९. विकुब्बनाय पन मनोमयाय च इदं नानाकरणं। विकुब्बनं ताव करोन्तेन "सो पकतिवण्णं विजहित्वा कुमारकवण्णं वा दस्सेति, नागवण्णं वा दस्सेति, सुपण्णवण्णं वा दस्सेति, असुरवण्णं वा दस्सेति, इन्दवण्णं वा दस्सेति, देववण्णं वा दस्सेति, ब्रह्मवण्णं वा दस्सति, समुद्दवण्णं वा दस्सेति, पब्बतवण्ण वा दस्सेति, सीहवण्णं वा दस्सति, व्यग्धवण्णं वा दस्सेति, दीपिवण्णं वा दस्सेति, हत्थिं पि दस्सेति, अस्सं पि दस्सेति, रथं पि दस्सेति, पत्तिं पि दस्सेति, विविधं पि सेनाब्यूहं दस्सेती" (खु० नि० ५/४७३) ति एवं वुत्तेसु कुमारकवण्णादीसु यं यं आकङ्गति, तं तं अधिट्ठातब्बं। अधिगृहन्तेन च पथवीकसिणादीसु अवतरारम्मणतो अभिञापादकज्झानतो वुट्ठाय अत्तनो कुमारकवण्णो आवज्जितब्बो। आवज्जित्वा परिकम्मावसाने पुन समापज्जित्वा वुट्ठाय 'एवरूपो नाम कुमारको होमी' ति अधिट्ठातब्बं । सह अधिट्टानचित्तेन कुमारको होति, देवदत्तो विय। एस नयो सब्बत्थ। 'हत्थिं पि दस्सती' ति आदि पनेत्थ बहिद्धा पि हत्थिआदिदस्सनवसेन वुत्तं। तत्थ 'हत्थी होमी' ति अनधिट्ठहित्वा 'हत्थी होतू' ति अधिट्ठातब्बं । अस्सादीसु पि एसेव नयो ति। अयं विकुब्बना इद्धि। ३. मनोमया इद्धि ५२. मनोमयं कातुकामो पन पादकज्झानतो वुट्ठाय कायं ताव आवज्जित्वा वुत्तनयेनेव, 'सुसिरो होतू' ति अधिट्ठाति, सुसिरो होति। अथस्स अब्भन्तरे अखं कायं आवज्जित्वा से उक्त विधान को सम्पन्न करता है, तभी वह काया को वश में किया हुआ होता है। यहाँ शेष जो कुछ कहा गया है, वह काया को वश में करने के पूर्व की स्थिति का निर्देश करने के लिये है। यह अधिष्ठान ऋद्धि है। २. विकुर्वण ऋद्धि - ४९. विकुर्वण एवं मनोमय में यह अन्तर है-विकुर्वण करने वाले को यों बतलाये गये कुमार आदि रूपों में से जिसे जिसे चाहे, उस उस का अधिष्ठान करना चाहिये "वह प्राकृतिक रूप को छोड़कर कुमार का रूप दिखलाता है, नाग, गरुड़, असुर, इन्द्र, देव, ब्रह्मा, समुद्र, पर्वत, सिंह, व्याघ्र, एवं चीते का रूप दिखलाता है, हाथी, घोड़ा, रथ या पैदल सेना भी दिखलाता है और विविध सेना-व्यूह भी दिखलाता है।" (खु० नि० ५/७३)। तथा अधिष्ठान करने वाले को पृथ्वीकसिण आदि में से किसी एक को आलम्बन बनाने वाले, अभिज्ञा के आधारभूत ध्यान से उठकर स्वयं का कुमार के रूप में आवर्जन करना चाहिये। आवर्जन के बाद परिकर्म करके, पुनः समापन होकर उठने पर यों अधिष्ठान करना चाहिये-'इस प्रकार का कुमार हो जाऊँ।' अधिष्ठान-चित्त के साथ ही, कुमार हो जाता है। यही नय (विधि) सर्वत्र है। किन्तु यहाँ 'हाथी भी दिखलाता है' आदि बाहर से भी (=स्वयं को उस रूप में न बदल कर भी) हाथी आदि के प्रदर्शन के बारे में कहा गया है। वहाँ, 'हाथी हो जाऊँ'-यों अधिष्ठान न कर 'हाथी हो जाय'-यों अधिष्ठान करना चाहिये। अश्व आदि में भी यही नय है। यह विकुर्वण ऋद्धि है।

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