Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 342
________________ १३. अभिज्ञानिद्देसो तेरसमो परिच्छेदो १. दिब्बसोतधातुकथा १. इदानि दिब्बसोतधातुया निद्देसक्कमो अनुप्पत्तो । एत्थ ततो परासु च तीसु अभिञासु "सो एवं समाहिते चित्ते''३ (दी० नि० १/८७) ति आदीनं अत्थो वुत्तनयेनेव वेदितब्बो। सब्बत्थ पन विसेसमत्तमेव वण्णयिस्साम। तत्र दिब्बाय सोतधातुया ति। एत्थ दिब्बसदिसत्ता दिब्बा। देवानं हि सुचरितकम्मनिब्बत्ता पित्तसेम्हरुहिरादीहि अपलिबद्धा उपक्किलेसविमुत्तताय दूरे पि आरम्मणं सम्पटिच्छनसमत्था दिब्बपसादसीतधातु होति। अयं चापि इमस्स भिक्खुनो विरियभावनाबलनिब्बत्ता आणसोतधातु तादिसा येवा ति दिब्बसदिसत्ता दिब्बा। अपि च दिब्बविहारवसेन पटिलद्धत्ता अत्तना च दिब्बविहारसनिस्सितत्ता पि दिब्बा। सवनटेन निज्जीवद्वेन च सोतधातु। सोतधातुकिच्चकरणेन च सोतधातु विया ति पि सोतधातु। ताय दिब्बाय सोतधातुया। १३. अभिज्ञानिर्देश त्रयोदश परिच्छेद दिव्यश्रोत्रधातु १. अब दिव्य श्रोत्रधातु के निर्देश का क्रम प्राप्त हुआ है। यहाँ अन्य अवशिष्ट तीन अभिज्ञाओं के विषय में भी, "सो एवं समाहिते चित्ते'१ (दी० नि० १/६९) आदि का अर्थ उक्त नय से ही जानना चाहिये। उन सब में जो अन्तर है, यहाँ हम केवल उसी का वर्णन करेंगे। वहाँ (उक्त पालि में) दिब्बाय सोतधातुया-यहाँ दिव्य (दैवीय) के समान होने से दिव्य है। कारण यह है कि देवताओं की श्रोत्रधातु दिव्य प्रसाद (=ग्रहणशक्ति) वाली होती है; क्योंकि सत्कर्म से उत्पन्न होने के कारण वह पित्त, श्लेष्मा, रुधिर आदि (से उत्पन्न) बाधाओं से रहित एवं उपक्लेशों से विमुक्त होती है। अत: दूरवर्ती आलम्बन को भी ग्रहण कर सकती है। एवं इस भिक्षु की ज्ञान-श्रोत्रधातु (ज्ञान में निहित श्रोत्रधातु) भी वीर्यभावना के बल से उत्पन्न होने से वैसी ही होती है, अत: दिव्य के समान होने से दिव्य है। इसके अतिरिक्त, दिव्य विहार द्वारा प्राप्त होने से एवं दिव्य विहार पर स्वयं भी आश्रित होने से दिव्य है। श्रवण के अर्थ में एवं १. सम्पूर्ण पालि यह है : "सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते दिब्बाय सोतधातुया चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कतमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति-दिब्बे च मानुसे च, ये दूरे सन्तिके च।""सो एवं समाहिते चित्ते ...पूर्ववत्... आनेञ्जपत्ते...अभिनिन्नामेति"। यह सभी पाँच अभिज्ञाओं के बारे में समान रूप से कहा गया है, एवं इन पदों पर पहले विचार हो चुका है, अत: इस परिच्छेद में केवल विशेष का वर्णन करेंगे-यह ग्रन्थकार का आशय है।

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