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विसुद्धिमग्गो
गच्छति, उदाहु ठितिक्खणे, भङ्गक्खणे वा ? ति वुत्ते "तीसु पि खणेसु गच्छती" ति थेरो आह । किं पन सोसयं गच्छति निमित्तं पेसेती ति ? यथारुचि करोति । इध पनस्स सयं गमनमेव आगतं ।
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४७. मनोमयं ति। अधिट्ठानमनेन निम्मितत्ता मनोमयं । अहीनिन्द्रियं ति । इदं चक्खुसोतादीनं सण्ठानवसेन वुत्तं । निम्मितरूपे पन पसादो नाम नत्थि । सचे इद्धिमा चङ्कमति निम्मितो पि तत्थ चङ्कमती ति आदि सब्बं सावकनिम्मितं सन्धाय वृत्तं । बुद्धनिम्मितो पन यं यं भगवा करोति, तं तं पि करोति । भगवतो रुचिवसेन अपि करोतीति ।
१. अधिट्ठाना इद्धि
४८. एत्थ च यं सो इद्धिमा इधेव ठितो दिब्बेन चक्खुना रूपं पस्सति, दिब्बाय सोतधातुया ं सद्दं सुणाति, चेतोपरियत्राणेन चित्तं पजानाति, न एत्तावता कायेन वसं वत्तेति । यं पि सो इधेव ठितो तेन ब्रह्मना सद्धिं सन्तिट्ठति सल्लपति साकच्छं समापज्जति, एत्तावता पि न कायेन वसं वत्तेति । यं पिस्स दूरे पि सन्तिके अधिट्ठाती ति आदिकं अधिट्ठानं, एत्तावा पि न कायेन वसं वत्तेति । यं पि सो दिस्समानेन वा अदिस्समानेन वा कायेन ब्रह्मलोकं गच्छति, एत्तावता पि न कायेन वसं वत्तेति । यं च खो 'सो तस्स ब्रह्मनो पुरतो रूपं अभिनिम्मिनाती' ति आदिना नयेन वुत्तविधानं आपज्जति, एत्तावता कायेन वसं वत्तेति नाम । सेसं पनेत्थ कायेन वसं वत्तनाय पुब्बभागदस्सनत्थं वुत्तं ति । अयं ताव अधिट्ठाना इद्धि ।
है, या स्थितिक्षण में अथवा भङ्गक्षण में ? यों पूछे जाने पर (अट्ठकथा के आचार्यों में से एक) स्थविर ने कहा - ' तीनों क्षणों में जाता है', किन्तु क्या वह स्वयं जाता है या निर्मित को भेजता है ? यथारुचि करता है। किन्तु इस प्रसङ्ग में तो उसका स्वयं गमन ही आया हुआ है।
४७. मनोमयं - अधिष्ठान करने वाले मन (चित्त) द्वारा निर्मित होने से मनोमय । अहीनिन्द्रियं - यह चक्षु, श्रोत्र आदि की आकृति के विषय में कहा गया है । किन्तु निर्मित में (इन इन्द्रियों की बाह्य स्थूल आकृति मात्र होती है), प्रसाद ? ( = ग्रहणशक्ति) नहीं होता । सचे इद्धिमा चङ्कमति, निम्मितो पि तत्थ चङ्कमति - यह सभी श्रावकों द्वारा निर्मित (रूपों) के विषय में कहा गया है। किन्तु (जो) बुद्ध द्वारा निर्मित (होता है वह) जो जो भगवान् करते हैं, वह वह भी करता है । भगवान् की इच्छानुसार अन्य (कार्य) भी करता है।
१. अधिष्ठान ऋद्धि
४८. एवं यहाँ जो ऋद्धिमान् 'यहीं रहकर दिव्यचक्षु से रूप देखता है, दिव्य श्रोत्रधातु से शब्द सुनता है, चेत:पर्याय ज्ञान से ( अन्य के ) चित्त को जानता है' – इन सबसे वह काया को वश में नहीं करता। एवं जो 'यहीं रहकर उस ब्रह्म के समीप खड़ा होता है, वार्तालाप करता है, विचारों का आदान-प्रदान करता है'- इन सबसे भी वह काया को वश में नहीं करता एवं जो उसका 'जो दूर है वह भी समीप हो जाय' आदि अधिष्ठान है - इन सबसे भी काया को वश में नहीं करता । अपितु यह जो 'वह उस ब्रह्मा के समीप रूप का निर्माण करता है' आदि प्रकार १. चक्षुः प्रसाद आदि पाँच प्रसाद होते हैं।