Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 337
________________ ३१० विसुद्धिमग्गो ४४. इल्लीससेटिवत्थुस्मि पन महामोग्गल्लानत्थेरो थोकं बहुकमकासि, काकवलियवत्थुस्मि च भगवा। महाकस्सपत्थेरो किर सत्ताहं समापत्तिया वीतिनामेत्वा दलिद्दसङ्गहं करोन्तो काकवलियस्स नाम दुग्नतमनुस्सस्स घरद्वारे अट्ठासि। तस्स जाया थेरं दिस्वा पतिनो पक्कं अलोणम्बिलयागुंपत्ते आकिरि। थेरो तं गहेत्वा भगवतो हत्थे ठपेसि। भगवा महाभिक्खुसङ्घस्स पहोनकं कत्वा अधिट्टासि। एकपत्तेन आभता सब्बेसं पहोसि। काकवलियो पि सत्तमे दिवसे सेटिट्टानं अलत्था ति। __न केवलं च थोकस्स बहुकरणं, मधुरं अमधुरं, अमधुरं मधुरं ति आदीसु पि यं यं इच्छति, सब्बं इद्धिमतो इज्झति। तथा हि महाअनुळत्थेरो नाम सम्बहुले भिक्खू पिण्डाय चरित्वा सुक्खभत्तमेव लभित्वा गङ्गातीरे निसीदित्वा परिभुञ्जमाने दिस्वा गङ्गाय उदकं सप्पिमण्डं ति अधि?हित्वा सामणेरानं सजे अदासि । ते थालकेहि आहरित्वा भिक्खुसङ्घस्स अदंसु। सब्बे मधुरेन सप्पिमण्डेन भुञ्जिसू ति। ४५. दिब्बेन चक्खूना ति। इधेव ठितो आलोकं वड्वेत्वा तस्स ब्रह्मनो रूपं पस्सति। इधेव च ठितो तस्स भासतो सदं सुणाति, चित्तं पजानाति। कायवसेन चित्तं परिणामेती ति। करजकायस्स वसेन चित्तं परिणामेति, पादकज्झानचित्तं गहेत्वा काये आरोपेति । कायानुगतिकं करोति दन्धगमनं। कायगमनं हि दन्धं होति। सुखसकं च लहुसनं च ओक्कमतो ति को केवल एक पात्र में आने योग्य कर दिया। भगवान् स्थविर की राह देखते हुए आगे बैठे थे। स्थविर ने लाकर भगवान् को दिया। (५) ४४. इल्लीक सेठ की कथा में महामौद्गल्यायन स्थविर ने थोड़े को बहुत किया, एवं काकवलिय की कथा में भगवान् ने। महाकाश्यप स्थविर एक सप्ताह समापत्ति में बिताकर, दरिद्रों का उपकार करते हुए काकवलिय नामक दरिद्र व्यक्ति के गृह-द्वार पर उपस्थित हुए। उसकी पत्नी ने स्थविर को देखकर पति के लिये पकायी गयी विना नमक की खट्टी यवागू को पात्र में डाल दिया। स्थविर ने उसे लेकर भगवान् के हाथ में दिया। भगवान् ने अधिष्ठान किया कि 'यह (यवागू) भिक्षुओं के महासंघ के लिये पर्याप्त हो'। तब वह एक पात्र यवागू ही सब के लिये पर्याप्त हुई। काकवलिय ने भी (स्वपुण्य-प्रभाव से) सातवें दिन श्रेष्ठी का स्थान प्राप्त किया। (६) । ४४. एवं न केवल थोड़े को बहुत करना, अपितु मधुर को अमधुर या अमधुर को मधुर आदि में से भी जो जो चाहता है, वह सब ऋद्धिमान् के लिये सिद्ध होता है; क्योंकि जब बहुत से भिक्षु भिक्षा में केवल रूखा सूखा भात पाकर गङ्गा के किनारे बैठकर भोजन कर रहे थे, उस समय उन्हें देखकर महाअनुल स्थविर ने गङ्गा के जल में घी का अधिष्ठान किया एवं श्रामणेरों को संकेत किया। सभी ने मधुर (=सुस्वादु) घी के साथ भोजन किया। (७) ४५. दिब्बेन चक्खुना-यहीं रहते हुए आलोक (=दृष्टि की परिधि) बढ़ाकर तस्स ब्रह्मनो रूपं पस्सति। एवं यहीं रहते हुए उसके द्वारा कथित सदं सुणाति चित्तं पजानाति। कायवसेन चित्तं परिणामेति-करज (कर्मज, चार महाभूतों द्वारा निर्मित रूपी) काया के रूप में चित्त को परिणत करता है। आधारभूत ध्यान (से सम्प्रयुक्त) चित्त को काया पर आरोपित करता है। (चित्त १. गङ्गातीरे ति। तम्बपण्णिदीपे गङ्गानदिया तीरे। २. करजकायस्सा ति। चातुमहाभूतिकरूपकायस्स।

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