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विसुद्धिमग्गो
निम्मितो पि तत्थ तेन ब्रह्मना सिद्धिं सन्तिट्ठति, सल्लपति, साकच्छं समापज्जति । यं यदेव हि सो इद्धिमा करोति, तं तदेव निम्मितो करोती" (खु०नि० ५/४७२) ति ।
तत्थ दूरे पि सन्तिके अधिट्ठाती ति । पादकज्झानतो वुट्ठाय दूरे देवलोकं वा ब्रह्मलोकं वा आवज्जति—सन्तिके होतू ति । आवज्जित्वा परिकम्मं कत्वा पुन समापज्जित्वा जाणेन अधिद्वाति- सन्ति होतू ति, सन्तिके होति । एस नयो सेसपदेसु पि ।
४२. तत्थ को दूरं गत्वा सन्तिकं अकासी ति ? भगवा । भगवा हि यमकपाटिहारियावसाने देवलोकं गच्छन्तो युगन्धरं च सिनेरुं च सन्तिके कस्वा पथवीतलतो एकं पादं युगन्धरे पतिट्ठपेत्वा दुतियं सिनेरुमत्थके ठपेसि । (१)
अञ्ञो को अकासि ? महामोग्गल्लानत्थेरो । थेरो हि सावत्थितो भत्तकिच्चं कत्वा निक्खन्तं द्वादसयोजनिकं परिसं तिंसयोजनं सङ्कस्सनगरमग्गं सङ्क्षिपित्वा तं खणं येव सम्पासि । (२)
अपि च-तम्बपण्णिदीपे चूळसमुद्दत्थेरो पि अकासि । दुब्भिक्खसमये किर थेरस्स सन्तिकं पातो व सत्त भिक्खुसतानि आगमंसु । थेरो "महाभिक्खुसङ्घो, कुहिं भिक्खाचारो भविस्सती" ति चिन्तेन्तो सकलतम्बपण्णिदीपे अदिस्वा "परतीरे पाटलिपुत्ते भविस्सती " ति दिस्वाभिक्खू पत्तचीवरं गाहापेत्वा "एथावुसो, भिक्खाचारं गमिस्सामा" ति पथवं सङ्क्षिपित्वा पाटलिपुत्तं गतो । भिक्खू "कतरं, भन्ते, इमं नगरं" ति पुच्छिसु । "पाटलिपुत्तं, आवुसो" ति । "पाटलिपुत्तं नाम दूरे, भन्ते" ति ? " आवुसो, महल्लकत्थेरा नाम दूरे पि गहेत्वा सन्तिके
निर्मित भी वहाँ उत्तर देता है, यदि वह ऋद्धिमान् ब्रह्मा के समीप खड़ा होता है, वार्तालाप (संलाप) करता है, विचारों का आदान प्रदान करता है; तो निर्मित भी वहाँ उस ब्रह्मा के समीप खड़ा होता है, वार्तालाप करता है, विचारों का आदान-प्रदान करता है" (खु० नि० ५ / ४७२) ।
इनमें, दूरे पि सन्तिके अधिट्ठाति – आधारभूत ध्यान से उठकर सुदूरवर्ती देवलोक का या ब्रह्मलोक का आवर्जन करता है—' समीप हो जाय'। आवर्जन के पश्चात् परिकर्म करके, पुनः समापन्न होकर ज्ञान द्वारा अधिष्ठान करता है - 'समीप हो जाय, तो समीप हो जाता है। शेष पदों में भी यही नय है।
४२. दूर को समीप किसने किया ? भगवान् ने । यमकप्रातिहार्य ( दिखलाने) के बाद देवलोक जाते समय भगवान् ने युगन्धर एवं सुमेरु को आस पास किया एवं पृथ्वीतल से एक पैर ( उठाकर ) युगन्धर पर रखकर दूसरे को सुमेरु के शिखर पर रखा। (१)
अन्य किसने किया? मौद्गल्यायन स्थविर ने। क्योंकि स्थविर ने भोजन करके श्रावस्ती से निकल कर बारह योजन (विस्तृत) परिषद् को, सांकाश्यनगर तक जाने वाले तीस योजन के मार्ग को संक्षिप्त कर, उसी क्षण (सांकाश्य में) पहुँचा दिया। (२)
इसके अतिरिक्त, ताम्रपर्णी द्वीप में चूड़समुद्र स्थविर ने भी किया। कहते हैं कि अकाल के समय स्थविर के पास प्रातः ही सात सौ भिक्षु आ पहुँचे। स्थविर ने 'बहुत विशाल भिक्षुसंघ है, भिक्षाटन कहाँ होगा ?' - यों चिन्ता करते हुए समस्त ताम्रपर्णी द्वीप में (उपयुक्त स्थान) न देखकर, एवं 'उस पार पाटलिपुत्र में होगा ' यों (सम्भावना) देखकर, भिक्षुओं को पात्र - चीवर ग्रहण करवा