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विसुद्धिमग्गो
इति इमं इमस्मि नन्दोपनन्ददमने कतं महन्तं अत्तभावं सन्धायेतं वुत्तं-"यदा महन्तं अत्तभावं करोति, तदा महन्तं होति, महामोग्गल्लानत्थेरस्स विया" ति। एवं वुत्ते पि भिक्खू 'उपादिण्णकं निस्साय अनुपादिण्णकमेव वड्डती' ति आहंसु। अयमेव चेत्थ युत्ति।
४०. सो एवं कत्वा न केवलं चन्दिमसुरिये परामसति। सचे इच्छति पादकथलिकं कत्वा पादे ठपेति, पीठं कत्वा निसीदति, मञ्चं कत्वा निपज्जति, अपस्सेनफलकं कत्वा अपस्सयति। यथा च एको, एवं अपरो पि। अनेकेंसु पि हि भिक्खुसतसहस्सेसु एवं करोन्तेसु तेसं च एकमेकस्स तथेव इज्झति। चन्दिमसुरियानं च गमनं पि आलोककरणं पि तथैव होति। यथा हि पातिसहस्सेसु उदकपूरेसु सब्बपातीसु च चन्दमण्डलानि दिस्सन्ति। पाकतिकमेव चन्दस्स गमनं आलोककरणं च होति। तथूपममेतं पाटिहारियं ।
ब्रह्मलोकगमनादिकं पाटिहारियं ४१. याव ब्रह्मलोका पी ति। ब्रह्मलोकं पि परिच्छेदं कत्वा। कायेन वसं वत्तेती ति। तत्थ ब्रह्मलोके कायेन अत्तनो वसं वत्तेति । तस्सत्थो पाळिं अनुगन्त्वा वेदितब्बो। अयं हेत्थ पाळि
"याव ब्रह्मलोका पिकायेन वसंवत्तेती ति।सचे सो इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो ब्रह्मलोकं गन्तुकामो होति, दूरे पि सन्तिके अधिट्ठाति-सन्तिके होतू ति, सन्तिके होति। सन्तिके पि दूरे अधिट्ठाति-दूरे होतू ति, दूरे होति। बहुकं पि थोकं अधिट्ठाति-थोकं होतू ति, थोकं करें। स्थविर का सप्ताहपर्यन्त सत्कार करूँगा।" एवं एक सप्ताह तक उसने बुद्धप्रमुख पाँच सौ भिक्षुओं का महासत्कार किया।
यों इस (प्रसङ्ग) में निर्मित विशालरूप के विषय में ही कहा गया है- "जब रूप को विशाल बनाता है, तब वह महामौद्गल्यायन स्थविर के समान विशाल होता है।" यों उक्त होने पर भी भिक्षुओं ने कहा था कि उपादित्रक के आश्रय से अनुपादिनक ही बढ़ता है एवं यहाँ यही युक्ति है।
४०. ऐसा करके वह न केवल चन्द्र-सूर्य को छूता है, अपितु यदि चाहता है तो पादासन (पाँव रखने के लिये रचित चौकी या पाँवपोश) बनाकर पाँव रखता है, बैठने की चौकी बनाकर बैठता है, चारपाई बनाकर सोता है, गावतकिया (=मसनद) बनाकर, टेककर आराम करता है। एवं एक (योगी) जिस प्रकार (करता है), उसी प्रकार दूसरा भी। क्योंकि हजारों भिक्षु भी यदि ऐसा करते हैं तो उनमें से प्रत्येक को वैसे ही सिद्ध होता है। चन्द्र-सूर्य का गमन भी प्रकाश करना भी वैसा ही होता है। जैसे कि यदि जल से भरी हजार थालियाँ हों, तो सभी थालियों में चन्द्रमण्डल दिखायी देते हैं। (उन सबमें) स्वभावतः ही चन्द्रमा का गतिशील होना, चमकना आदि दृष्टिगत होता है। यह प्रातिहार्य वैसा ही है।
__ब्रह्मलोकगमनादि प्रातिहार्य ४१. जहाँ तक कि ब्रह्मलोका पि-ब्रह्मलोक तक भी। कायेन वसं वत्तति वहाँ ब्रह्मलोक में काय द्वारा स्वयं को वश में करता है। इसका अर्थ पालि के अनुसार समझना चाहिये। यहाँ १. पाळी ति। पटिसम्भिदामग्गपालि।