Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti
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३०४
विसुद्धिमग्गो नागराजा "अयं मं सिनेरुना अभिनिप्पीळेत्वा धूमायति चेव पज्जलति चा" ति चिन्तेत्वा "भो, त्वं कोसी?" ति पटिपुच्छि। "अहं खो, नन्द, मोग्गल्लानो" ति। "भन्ते, अत्तनो भिक्खुभावेन तिट्ठाही" ति।
३६. थेरो तं अत्तभावं विजहित्वा तस्स दक्खिणकण्णसोतेन पविसित्वा वामकण्णसोतेन निक्खमि, वामकण्णसोतेन पविसित्वा दक्खिणकण्णसोतेन निक्खमि, तथा दक्षिणनासासोतेन पविसित्वा वामनासासोतेन निक्खमि, वामनासासोतेन पविसित्वा दक्षिणनासासोतेन निक्खमि। ततो नागराजा मुखं विवरि। थेरो मुखेन पविसित्वा अन्तो कुच्छियं पाचीनेन च पच्छिमेन च चङ्कमति।
__ भगवा "मोग्गल्लान, मनसिकरोहि महिद्धिको एस नागो" ति आह। थेरो "मय्हं खो, भन्ते, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा। तिट्टतु, भन्ते, नन्दोपनन्दो, अहं नन्दोपनन्दसदिसानं नागराजानं सतं पि सहस्सं पि दमेय्यं" ति आह।
३७. नागराजा चिन्तेसि-"पविसन्तो ताव मे न दिट्ठो, निक्खमनकाले दानि नं दाठन्तरे पक्खिपित्वा सङ्घादिस्सामी" ति चिन्तेत्वा "निक्खम, भन्ते, मा मं अन्तोकुच्छियं अपरापरं चङ्कमन्तो बाधयित्था" ति आह। थेरो निक्खमित्वा बहि अट्ठासि। नागराजा "अयं सो" ति दिस्वा नासावातं विस्सज्जि। थेरो चतुत्थं झानं समापज्जि। लोमकूपं पि स वातो चालेतुं
है'-यों कहते हुए जलने लगे। नागराज का तेज स्थविर को कष्ट नहीं देता था, किन्तु स्थविर का तेज नागराज को कष्ट देने लगा।
नागराज ने-'यह मुझे सुमेरु के साथ दबाते हुए धुंआ छोड़ता है, एवं जलता भी है'यों चिन्तित होते हुए पूछा-"अरे, तुम कौन हो?" "नन्द! मैं मौद्गल्यायन हूँ।"
"भन्ते! अपने भिक्षु-रूप में आइये।" ३६. स्थविर ने वह (नाग) रूप त्याग कर वे (नन्द के) दाहिने कर्ण-छिद्र से प्रवेश कर बायें कर्ण-छिद्र से निकले, बायें कर्ण-छिद्र से प्रवेश कर दाहिने कर्ण-छिद्र से निकले, एवं दाहिने नासिका-छिद्र से प्रवेश कर बायें नासिका-छिद्र से निकले, बायें नासिका-छिद्र से प्रवेश कर दाहिने नासिका-छिद्र से निकले। तब नागराज ने मुख फैला दिया। स्थविर मुख से प्रवेश कर, उदर के भीतर पूर्व-पश्चिम घूमने लगे।
भगवान् ने कहा-"मौद्गल्यायन, सावधान! यह नाग महाऋद्धिमान् है। स्थविर ने कहा"भन्ते, मैंने चार ऋद्धिपादों की भावना की है, अभ्यास किया है, यान (-साधन) बनाया है, आधार बनाया है, अनुष्ठान किया है, परिचित किया है एवं भलीभाँति ग्रहण किया है। भन्ते, यह नन्दोपनन्द है तो रहा करे, मैं नन्दोपनन्द जैसे सौ हजार नागराजों का भी दमन कर सकता हूँ!"
३७. नागराज ने सोचा-"प्रवेश करते समय तो मैंने देखा नहीं, अब निकलते समय इसे जबड़ों के बीच पकड़कर खा जाऊँगा। यों सोचकर कहा-"भन्ते! बाहर आइये, मेरे उदर में ऊपर नीचे घूमकर कष्ट मत दीजिये।" स्थविर निकलकर बाहर खड़े हुए। नागराज 'यही है'-यों देखकर फुफकारा। स्थविर चतुर्थ ध्यान में समापन हो गये। वह वायु उनका रोम भी हिला नहीं पायी।
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