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विसुद्धिमग्गो भगवा "अयं नागराजा मय्हं आणमुखे आपाथं आगच्छि, अत्थि नु खो अस्स उपनिस्सयो?" ति आवजेन्तो "अयं मिच्छादिट्टिको तीसु रतनेसु अप्पसत्रो" ति दिस्वा "को नु खो इमं मिच्छादिट्ठितो विवेचेय्या?" ति आवजेन्तो महामोग्गल्लानत्थेरं अद्दस।
३२. ततो पभाताय रत्तिया सरीरपटिजग्गनं कत्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि"आनन्द, पञ्चन्नं भिक्खुसतानं आरोचेहि-तथागतो देवचारिकं गच्छती" ति।
तं दिवसं च नन्दोपनन्दस्स आपानभूमि' सज्जयिंसु। सो दिब्बरतनपल्लङ्के दिब्बेन सेतच्छत्तेन धारियमानेन तिविधनाटकेहि चेव नागपरिसाय च परिवुतो दिब्बभाजनेसु उपट्ठापितं अन्नपानविधिं ओलोकयमानो निसिन्नो होति। अथ भगवा यथा नागराजा पस्सति, तथा कत्वा तस्स वितानमत्थकेनेव पञ्चहि भिक्खुसतेहि सद्धिं तावतिसदेवलोकाभिमुखो पायासि।
३३. तेन खो पन समयेन नन्दोपनन्दस्स नागराजस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति-"इमे हि नाम मुण्डका समणका अम्हाकं उपरूपरिभवनेन देवानं तावतिंसानं भवनं पविसन्ति पि निक्खमन्ति पि, न दानि इतो पट्ठाय इमेसं अम्हाकं मत्थके पादपंसुं ओकिरन्तानं गन्तं दस्सामी" ति। उट्ठाय सिनेरुपादं गन्त्वा तं अत्तभावं विजहित्वा सत्तक्खत्तुं भोगेहि परिक्खिपित्वा उपरि फणं कत्वा तावतिसभवनं अवकुज्जेन फणेन गहेत्वा अदस्सनं गमेसि।
ने स्वीकार किया। उस दिन का शेष भाग एवं रात्रि व्यतीत कर, उष:काल में दस सहस्र लोकधातु का अवलोकन किया। तब नन्दोपनन्द नामक नागों (सों) का राजा उनके ज्ञान की परिधि में आया। भगवान् ने-'यह नागराज मेरे ज्ञान की परिधि में आया है, क्या इसका उपनिश्रय (आध्यात्मिक उन्नति की सम्भावना) है?'–यों आवर्जन करते हुए देखा कि यह मिथ्या दृष्टि वाला एव तीनों रत्नों के प्रति अप्रसन्न हैं। तब इसे मिथ्यादृष्टि से कौन छुड़ा सकता है ?'-यह विचार करते हुए महामौद्गल्यायन स्थविर को (समर्थ) देखा।
__३२. जब रात्रि प्रभात में बदल गयी, तब उन्होंने शारीरिक कृत्य पूर्ण कर आयुष्मान् आनन्द को आमन्त्रित किया-"आनन्द, पाँच सौ भिक्षुओं को सूचित करो कि तथागत चारिका के लिये देवलोक जा रहे हैं।"
उधर, उस दिन नन्दोपनन्द का भोजनागार सजाया गया था। वह दिव्यरत्नजटित पर्यङ्क (=आसन) पर दिव्य श्वेत छत्र लगाये हुए, त्रिविध नर्तकियों एवं नागपरिषद् द्वारा घिरा हुआ, दिव्य पात्रों में रखे हुए अनेकविध भोज्य पेय का अवलोकन करते हुए बैठा था। भगवान् उसके वितान (=चँदोवे) के ऊपर से ही पाँच सौ भिक्षुओं के साथ त्रायस्त्रिंश देवलोक के लिये इस प्रकार गये जिससे कि नागराज देख सके।
३३. उस समय नन्दोपनन्द नागराज में ऐसी कुत्सित दृष्टि (भावना) उत्पन्न हुई–'मुण्डक श्रमणक हमारे भवन के ऊपर ही ऊपर से त्रायस्त्रिंश भवन में प्रवेश भी कर रहे हैं, निकल भी रहे हैं। अब से हमारे मस्तक पर पैरों की धूल बिखेरते हुए इन्हें जाने नहीं दूंगा।' वह उठा और सुमेरु पर्वत के पादस्थल में जाकर उसने अपना वह रूप त्यागकर (उस पर्वत को) कुण्डली से
१. आपानभूमिं ति। यत्थ सो निसिन्नो भोजनकिच्चं करोति, तं परिवेसनट्ठानं ।