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विसुद्धिमग्गो २४. उदके पि अभिज्जमाने ति। एत्थ यं उदकं अक्कमित्वा संसीदति, तं भिज्जमानं ति वुच्चति। विपरीतं अभिन्जमानं। एवं गन्तुकामेन पन पथवीकसिणं समापज्जित्वा वुट्ठाय 'एत्तके ठाने उदकं पठ्वी होतू' ति परिच्छिन्दित्वा परिकम्मं कत्वा वुनयेनेव अधिट्ठातब्बं । सह अधिट्ठानेन यथा परिच्छिन्नट्ठाने उदकं पथवी येव होति । सो तत्थ गच्छति। तत्रायं पाळि
"पकतिया पथवीकसिणसमापत्तिया लाभी होति। उदकं आवज्जति। आवज्जित्वा आणेन अधिट्ठाति–'पथवी होतू' ति, पथवी होति। सो अभिजमाने उदके गच्छति। यथा मनुस्सा पकतिया अनिद्धिमन्तो अभिजमानाय पथविया गच्छन्ति, एवमेव सो इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो अभिज्जमाने उदके गच्छति, सेय्यथा पि पथवियं" (खु० नि०.५/४७१) ति।
न केवलं च गच्छति, यं यं इरियापथं इच्छति, तं तं करोति। न केवलं च पथविमेव करोति, मणिसुवण्णपब्बतरुक्खादीसु पि यं यं इच्छति, तं तं वुत्तनयेनेव आवज्जित्वा अधिट्ठाति यथाधिट्ठितमेव होति। तस्सेव च तं उदकं पथवी होति, सेसजनस्स उदकमेव । मच्छकच्छपा च उदककाकादयो च यथारुचि विचरन्ति। सचे पनायं अजेसं पि मनुस्सानं तं पथविं कातुं इच्छति, करोति येव। परिच्छिन्नकालातिक्कमे पन उदकमेव होति।
__ आकासगमनादिकं पाटिहारियं २५. पल्लङ्केन कमती ति। पल्लङ्केन गच्छति। पक्खी सकुणो ति पक्खेहि युत्तसकुणो। एवं कातुकामेन पन पथवीकसिणं समापज्जित्वा वुट्ठाय सचे निसिन्नो गन्तुं इच्छति, पल्लङ्कप्पमाणं
२४. उदके पि अभिज्जमाने–यहाँ, जिस जल पर चलते समय डूब जाता है, उसे भिद्यमान कहा जाता है। विपरीत को अभिद्यमान। यों जाने के अभिलाषी को चाहिये कि पृथ्वीकसिण में समापन्न होने के पश्चात् उठकर 'इतने स्थान तक जल पृथ्वी हो जाय'-यों सीमा निर्धारित कर, परिकर्म करने के बाद उक्त विधि से ही अधिष्ठान करे। अधिष्ठान करते ही उस सीमा तक का जल पृथ्वी ही हो जाता है। वह उस पर जाता है। यहाँ यह पालि है
. "स्वभाव से ही पृथ्वीकसिणसमापत्ति का लाभी होता है। जल का आवर्जन करता है। आवर्जन करके ज्ञान द्वारा अधिष्ठान करता है-'पृथ्वी हो', तो पृथ्वी हो जाता है। वह अभिद्यमान जल (अर्थात् वह जल जो पृथ्वी के समान ठोस हो गया है) पर जाता है। जैसे ऋद्धि से रहित मनुष्य स्वभाव से ही अभिद्यमान पृथ्वी पर चलते हैं; वैसे ही चित्त को वश में कर चुका वह ऋद्धिमान् अभिद्यमान जल पर चलता है, जैसे पृथ्वी पर।" (खु० नि० ५/४७१)।
न केवल जाता है, अपितु जिस-जिस ईर्यापथ को चाहता है, उसे उसे करता है। एवं न केवल पृथ्वी ही बनाता है, अपितु मणि, स्वर्ण, पर्वत, वृक्ष आदि में से भी जिसे जिसे चाहता है, उस उस का उक्त प्रकार से ही आवर्जन करके अधिष्ठान करता है; तो जैसे अधिष्ठान किया था वैसा ही होता है। एवं वह जल केवल उसी के लिये पृथ्वी होता है, शेष जनों के लिये जल ही रहता है। (उसमें) मछली, कछुआ, उदककाक (जलमुर्गी) आदि इच्छानुसार विचरते हैं। किन्तु यदि अन्य मनुष्यों के लिये भी (जल को) पृथ्वी बनाना चाहे, तो बनाता ही है। फिर भी, निश्चित समय (जितने समय तक प्रातिहार्य का प्रभाव रह सकता है, उतने समय) के पश्चात् जल ही हो जाता है।