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विसुद्धिमग्गो
उपरिमकायतो अग्गिक्खन्धो पवत्तति, हेट्ठिमकायतो उदकधारा पवत्तती" (खु०नि० ५/ १३८) ति एवं पञ्जयित्थ । अपाकटपारिहारिये इद्धि येव पञ्ञायति, न इद्धिमा । तं महकसुत्तेन (सं० नि०-३/२५८) ब्रह्मनिकन्तनिकसुत्तेन (म० नि० १ / ३९९) च दीपेतब्बं । तत्र हि आयस्मतो च महकस्स, भगवतो च इद्धि येव पञ्ञायित्थ, न इद्धिमा ।
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यथाह—“एकमन्तं निसिन्नो खो चित्तो गहपति आंयस्मन्तं महकं एतदवोच - 'साधु मे, भन्ते, अय्यो महको उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्विपाटिहारियं दस्सेतू' ति । 'तेन हि त्वं, गहपति, आळिन्दे उत्तरासङ्गं पञ्ञपेत्वा तिणकलापं ओकासेही ' ति । ' एवं 'भन्ते' ति खो चित्तो गहपति आयस्मतो महकस्स पटिस्सुत्वा आळिन्दे उत्तराङ्गं पञ्ञापेत्वा तिणकलापं ओकासेसि। अथ खो आयस्मा महको विहारं पविसित्वा तथारूपं इद्धाभिसङ्घारं अभिसङ्घासि, यथा ताळच्छिग्गळेन चं अग्गळन्तरिकाय च अच्चि निक्खमित्वा तिणानि झापेसि उत्तरासङ्गं न झापेसि" (सं० नि० ३/१४८२) । (१)
यथा चाह—“अथ ख्वाहं, भिक्खवे, तथारूपं इद्धाभिसङ्घारं अभिसङ्घासिं, एत्तावता ब्रह्मा च ब्रह्मपरिसा च ब्रह्मपारिसज्जा च सद्दं च मे सोस्सन्ति, न च मं दक्खन्ती" ति अन्तरहितो इमं गाथं अभासिं—
भवे वाहं भयं दिस्वा, भवं च विभवेसिनं । भवं नाभिवदिं किञ्चि, नन्दिं च न उपादियिं" ति ॥
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(म० नि० १/४५७)
( यमक प्रातिहार्य में ) - " यहाँ तथागत यमकप्रातिहार्य करते हैं, जो श्रावकों के लिये असाधारण है । (तथागत की ) काया के ऊपरी भाग से अग्नि की लपटें निकलती हैं तो काया के निचले भाग से जल की धारा निकलती है" (खु०नि० ५ /१३८ ) - यों दोनों ही ज्ञात हुए थे।
अप्रकट प्रातिहार्य में ऋद्धि ही ज्ञात होती है, ऋद्धिमान् नहीं। इसे महकसुत्त (सं०नि० ३/२५८) एवं ब्रह्मनिकन्तक सुत्त (म० नि० १ / ३९६) द्वारा स्पष्ट करना चाहिये ।
जैसा कि कहा गया है- " एक ओर बैठे हुए चित्त गृहपति ने आयुष्मान् महक से कहा'अच्छा हो, यदि, भन्ते आर्य महक ! आप अलौकिक ऋद्धि प्रातिहार्य को दिखलायें ।' "यदि ऐसा है तो, गृहपति ! तुम बरामदे में उत्तरासङ्ग बिछाकर, तृण का ढेर बिखेर दो।" चित्त गृहपति ने
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'अच्छा भन्ते ! " - यों आयुष्मान् महक को उत्तर देकर बरामदे में उत्तरासङ्ग विछा कर तृण का ढेर बिखेर दिया। तब आयुष्मान् महक ने विहार में प्रवेश कर ऐसा ऋद्धि प्रयोग किया जिससे कि ताले एवं अर्गला के छेद से निकल कर अग्नि की लपट ने समग्र तृणों को जला दिया, परन्तु उत्तरासङ्ग को नहीं जलाया।" (सं० नि० ३/१४८२) (१)
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एवं, जैसा कि कहा है- 'भन्ते! तब मैंने वैसे ऋद्धि-प्रयोग किया जिससे कि ब्रह्मा, ब्रह्मपरिषद् एवं ब्रह्म-सभासद मेरे शब्दों को सुन सकें, किन्तु मुझे देख न सकें । यों अन्तर्हित होकर मैंने यह गाथा कही
'मैंने भव (संसार) में भय, एवं वैभव के अभिलाषियों को संसार में देखा तथा भव का किञ्चित् भी समर्थन नहीं किया, न ही तृष्णा (= नन्दी) से सम्पृक्त हुआ ||" (म०नि० १ / ४५७)