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विसुद्धिमग्गो
वसीभावप्पत्ते ति वुत्तं होति । वसे वत्तमानं हि चित्तं मुदुं ति वुच्चति । मुदुत्ता येव च कम्मनिये । कम्मक्खमे, कम्मयोग्गे ति वुत्तं होति ।
मुदं हि चित्तं कम्मनियं होति, सुधन्तमिव सुवण्णं । तं च उभयं पि सुभावित्तत्ता येवा ति । यथाह - " नाहं, भिक्खवे, अञ्ञ एकधम्मं पि समनुपस्सामि, यं एवं भावितं बहुलीकतं मुदं च होति कम्मनियं च यथयिदं, भिक्खवे, चित्तं" (अं० नि० १ / ६ ) ति ।
एतेसु परिसुद्धभावादीसु ठितत्ता ठिते । ठितत्ता एव आनेञ्जप्पत्ते, अचले निरिञ्जने ति वुत्तं होति। मुदुकम्मञ्ञभावेन वा अत्तनो वसे ठितत्ता ठितै । सद्धादीहि परिग्गहितत्ता आनेञ्जप्पत्ते । सद्धापरिग्गहितं हि चित्तं अस्सद्धियेन न इञ्जति, विरियपरिग्गर्हितं कोसज्जेन न इञ्जति, सतिपरिग्गहितं पमादेन न इञ्जति, समाधिपरिग्गहितं उद्धच्चेन न इञ्जति, पञ्ञापरिग्गहितं अविज्जाय न इञ्जति, ओभासगतं किलेसन्धकारेन न इञ्जति – इमेहि छहि धम्मेहि परिग्गहितं आनेञ्जप्पत्तं होति।
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एवं अट्ठङ्गसमन्नागतं चित्तं अभिनीहारक्खमं होति अभिज्ञासच्छिकरणीयानं धम्मानं अभिज्ञासच्छिकिरियाय ।
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७. अपरो नयो – चतुत्थज्झानसमाधिना समाहिते । नीवरणदूरीभावेन परिसुद्धे । वितक्कादिसमतिक्कमेन परियोदाते । झानपटिलाभपच्चयानं पापकानं इच्छावचरानं अभावेन अनङ्गणे । अभिज्झादीनं चित्तस्स उपक्किलेसानं विगमेन विगतूपक्किलेसे । उभयं पिचेतं
अर्थात् वशीभूत । वशीवर्ती चित्त को ही 'मृदु' कहते हैं । एवं मृदु होने से ही कम्मनिये। अर्थात् कर्मकरणसमर्थ, कर्म के योग्य ।
क्योंकि मृदु चित्त ही कर्मण्य होता है, जैसे कि पिघलाया हुआ सोना । वह दोनों (मृदु एवं कर्मण्य) रूप में भली भाँति भावित होने पर ही होता है। जैसा कि कहा है- " भिक्षुओ ! मैं अन्य किसी एक भी धर्म को नहीं देखता हूँ, जो कि यों भावित, वर्धित करने पर इस तरह मृदु एवं कर्मण्य होता हो, जैसा कि, भिक्षुओ! यह चित्त है ।" (अ० नि० १ / ६) ।
इन परिशुद्ध भाव आदि में स्थित रहने से -ठिते । स्थिर होने से ही - आनेञ्जप्पत्ते अर्थात् अचल, निरञ्जन होने पर। अथवा, मृदु एवं कर्मण्य के रूप में अपने वश में होने से -ठिते । श्रद्धा आदि के द्वारा परिगृहीत होने से – आनेञ्जप्पत्ते । क्योंकि श्रद्धा आदि द्वारा परिगृहीत चित्त अश्रद्धा द्वारा विचलित नहीं होता, वीर्य द्वारा परिगृहीत कौसीद्य (= आलस्य) से, स्मृतिपरिगृहीत चित्त प्रमाद से विचलित नहीं होता, समाधि - परिगृहीत औद्धत्य से और प्रज्ञापरिगृहीत चित्त अविदया से, अवभास (= प्रभास्वरता) प्राप्त चित्त क्लेशरूपी अन्धकार से विचलित नहीं होता। इन छह धर्मों से परिगृहीत (चित्त) आने प्राप्त होता है ।
यों (इन) आठ अङ्गों से युक्त चित्त को अभिज्ञा का साक्षात्कार कराये जाने योग्य धर्मों के साक्षात्कार की ओर मोड़ा जा सकता है।
७. (व्याख्या की अन्य नयविधि यह है - चतुर्थ ध्यान समाधि से समाहिते । नीवरणरहित होने से परिसुद्धे । वितर्क आदि का अतिक्रमण करने से परियोदाते। ध्यान के लाभ से उत्पन्न पापेच्छा (='मैं ध्यानी हूँ' यों समाज में प्रचार करने एवं प्रशंसा प्राप्त करने की बुरी इच्छा) के अभाव