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इद्धिविधनिद्देसो एताय हि समन्नागतो खीणासवो भिक्खु पटिक्कूले अनिटे वत्थुस्मि मेत्ताफरणं वा धातुमनसिकारं वा करोन्तो अपटिक्कूलसञी विहरति। अपटिक्कूले इढे वत्थुस्मि असुभफरणं वा अनिच्चं ति मनसिकारं वा करोन्तो पटिक्कूलसची विहरति। तथा पटिकूलापटिक्कूलेसु तदेव मेत्ताफरणं वा धातुमनसिकारं वा करोन्तो अपटिक्कूलसञी विहरति। अपटिक्कूलपटिक्कूलेसु च तदेव असुभफरणं वा अनिच्वं ति मनसिकारं वा करोन्तो पटिक्कूलपटिक्कूलेसु च तदेव असुभफरणं वा अनिच्चं ति मनसिकारं वा करोन्तो पटिक्कूलसञ्जी विहरति। "चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होती" ति आदिना नयेन वुत्तं पन छळङ्गपेक्खं पवत्तयमानो पटिक्कूले च अपटिक्कूले च तदुभयं अभिनिवज्जित्वा उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो।
__पटिसम्भिदायं हि "कथं पटिक्कूले अपटिकूलसञ्जी विहरति ? अनिट्ठस्मि वत्थुस्मि मेत्ताय वा फरति धातुसो वा उपसंहरती" (खु० नि० ५/४७५) ति आदिना नयेन अयमेव अत्थो विभत्तो। अयं चेतोवसिप्पत्तानं अरियानं येव सम्भवतो अरिया इद्धी ति वुच्चति । (६) ... पक्खीआदीनं पन वेहासगमनादिका कम्मविपाकजा इद्धि नाम। यथाह-"कतमा कम्मविपाकजा इद्धि? सब्बेसं पक्खीनं सब्बेसं देवानं एकच्चानं मनुस्सानं एकच्चानं च विनिपातिकानं अयं कम्मविपाकजा इद्धी" (खु. नि० ५/३७६) ति। एत्थ हि सब्बेसं पक्खीनं झानं वा विपस्सनं वा विना येव आकासेन गमनं। तथा सब्बेसं देवानं पठमकप्पिकानं
में अप्रतिकूलसंज्ञी होकर विहार करूँ' तो वह उसमें अप्रतिकूल-संज्ञी होकर विहार करता है...स्मृतिसम्प्रजन्य के साथ, उपेक्षा के साथ उसमें विहार करता है" (खु० नि ५/४७५)। क्योंकि यह चित्त को वश में करने वाले आर्यों में ही सम्भव है, अतः इसे आर्यऋद्धि कहते हैं।
इससे युक्त भिक्षु प्रतिकूल में, अनिष्ट वस्तु में मैत्री का विस्तार या धातुमनस्कार करते हुए अप्रतिकूलसंज्ञी होकर साधना करता है। अथवा अप्रतिकूल, इष्ट वस्तुमें अशुभ (संज्ञा) का विस्तार या अनित्य है'-यों मनस्कार करते हुए प्रतिकूलसंज्ञी होकर साधना करता है। तथा प्रतिकूल
और अप्रतिकूल में वैसे ही मैत्री-विस्तार या धातुमनस्कार करते हुए अप्रतिकूलसंज्ञी होकर विहार करता है।
"चक्षु से रूप देखकर प्रसन्न नहीं होता"-आदि प्रकार से बतलायी गयी छह अङ्गों वाली उपेक्षा उत्पन्न करते हुए प्रतिकूल एवं अप्रतिकूल दोनों को ही छोड़कर उपेक्षा के साथ, स्मृति एवं सम्प्रजन्य के साथ साधना करता है।
__पटिसम्भिदामग्ग में-"कैसे प्रतिकूल में अप्रतिकूल संज्ञी होकर साधना करता है? अनिष्ट वस्तु में मैत्री का विस्तार करता है या उन्हें धातुओं का समूहमात्र मानता है" (खु० नि० ५/४७५)आदि प्रकार से इसी अर्थ का विस्तार किया गया है। क्योंकि यह चित्त को वश में करने वाले आर्यों (= श्रेष्ठ जनों) में ही सम्भव है, अत: इसे आर्य ऋद्धि कहते हैं। (६)
कर्मविपाकज ऋद्धि-पक्षी आदि का आकाश में उड़ना आदि कर्मविपाकज ऋद्धि है। जैसा कि का है-"कौन-सी कर्मविपाकजऋद्धि है? सभी पक्षियों की, सभी देवताओं की, किन्हीं मनुष्यों की, किन्हीं विनिपातकों (=बुरी योनि में उत्पन्न सत्त्वों) की यह कर्मविपाकज ऋद्धि है" (खु० ५/३७६)। यहाँ, सभी पक्षियों का, विपश्यना के विना ही, आकाश में उड़ना, सभी देवताओं