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इद्धिविधनिद्देसो
२८९ ५/४७०) ति। तत्रायं इद्धिमा आविभावं कातुकामो अन्धकारं वा आलोकं करोति, पटिच्छन्नं वा विवटं, अनापाथं वा आपाथं करोति।
कथं? अयं हि यथा पटिच्छन्नो पि दूरे ठितो पि वा दिस्सति, एवं अत्तानं वा परं वा कातुकामो पादकज्झानतो वुढाय 'इदं अन्धकारट्ठानं आलोकजातं होतू' ति वा, 'इदं परिच्छत्रं विवटं होतू' ति वा, 'इदं अनापाथं आपाथं होतू' ति वा आवजित्वा परिकम्मं कत्वा वुत्तनयेनेव अधिट्ठाति, सह अधिट्ठाना यथाधिट्ठितमेव होति, परे दूरे ठिता पि पस्सन्ति, सयं हि पस्सितुकामो पस्सति।
१६. एतं पन पाटिहारियं केन कतपुब्बं ति? भगवता। चूळसुभद्दाय निमन्तितो विस्सकम्मुना निम्मितेहि पञ्चहि कूटागारसतेहि सावत्थितो सत्तयोजनब्भन्तरं साकेतं गच्छन्तो, यथा साकेतनगरवासिनो सावत्थिवासिके सावत्थिवासिनो साकेतवासिके पस्सन्ति, एवं अधिट्ठासि, नगरमज्झे च ओतरित्वा पथविं द्विधा भिन्दित्वा याव अवीचिं आकासं च द्विधा वियूहित्वा याव ब्रह्मलोकं दस्सेसि। (१)
देवोरोहणेनापि च अयमत्थो विभावेतब्बो।
भगवा किर यमकप्राटिहारियं कत्वा चतुरासीतिपाणसहस्सानि बन्धना मोचेत्वा, 'अतीता बुद्धा यमकपाटिहारियावसाने कुहिं गता?' ति आवज्जित्वा 'तावतिंसभवनं गता' ति
अप्रतिच्छन्न, विवृत, प्रकट होता है। तिरोभाव-किसी से भी आवृत्त, प्रतिच्छन्न, ढंका हुआ होता है" (खु० नि० ५/४७०)।
यहाँ, आविर्भाव करने का अभिलाषी ऋद्धिमान् अन्धकार को प्रकाश में बदल देता है, या प्रतिच्छन्न को विवृत, अदृश्य को दृश्य बना देता है।
- कैसे? यदि यह (योगी) ढंके हुए को या दूरस्थ को स्वयं के लिये या अन्य के लिये प्रत्यक्ष करना चाहता है, तो आधार-भूत ध्यान से उठकर 'यह अन्धकारमय स्थान प्रकाशमान हो जाय', या 'यह जो ढंका हुआ है, खुल जाय', या 'यह जो अदृश्य है, दृश्यमान हो जाय'यों विचार (आवर्जन) कर, परिकर्म कर, उक्त प्रकार से ही अधिष्ठान करता है। अधिष्ठान करते ही वह अधिष्ठान के अनुसार ही हो जाता है। अन्य लोग दूरस्थ (दृष्टिपथ से दूर) को भी देखते हैं, यदि स्वयं भी देखना चाहे तो देखता है।
१६. यह प्रातिहार्य सर्वप्रथम किसके द्वारा किया गया था? भगवान् के द्वारा।
चूड़सुभद्रा (=अनाथपिण्डक श्रेष्ठी की पुत्री) द्वारा निमन्त्रित (भगवान् ने) विश्वकर्मा द्वारा निर्मित पाँच सौ कूटागारों (ऊँचे शिखरवाले प्रासाद) द्वारा श्रावस्ती से साकेत के बीच सात योजन तक जाते समय ऐसा अधिष्ठाम किया कि जिससे साकेतनगरवासी श्रावस्तीनिवासियों को एवं श्रावस्तीनिवासी साकेतनिवासियों को देखें। एवं नगर के बीच उतरकर पृथ्वी को दो भागों में विभक्त कर अवीचि नरक तक, तथा आकाश को दो भागों में बाँटकर ब्रह्मलोक तक दिखलाया। (१)
देवारोहण-कथा द्वारा भी यह अर्थ स्पष्ट किया जाना चाहिये।
कहते हैं कि भगवान् ने यमकप्रातिहार्य करके चौरासी हजार प्राणियों को बन्धन से छुड़ाया एवं विचार किया-"अतीत काल के बुद्ध यमकप्रातिहार्य के बाद कहाँ गये? उन्होंने (दिव्यचक्षु