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विसुद्धिमग्गो सरभञ्च-पहपुच्छन-पहविस्सज्जन-रजनपचन-चीवरसिब्बन-धोवनादीनि करोन्ते अपरे पि वा नानप्पकारके कातुकामो होति, तेन पादकज्झानतो वुट्ठाय "एत्तका भिक्खू पठमवया होन्तू" ति आदिना नयेन परिकामं कत्वा पुन समापज्जित्वा वुट्ठाय अधिट्ठातब्बं । अधिट्ठानचित्तेन सद्धिं इच्छितिच्छितप्पकारा येव होन्ती ति।
बहुभावपाटिहारियं १४. एस नयो बहुधा पि हुत्वा एको होती ति आदिसु।
अयं पन विसेसो-इमिना भिक्खुना एवं बहुभावं निम्मिनित्वा पुन "एको व हुत्वा चङ्कमिस्सामि, सज्झायं करिस्सामि, पहं पुच्छिस्सामी" ति चिन्तेत्वा वा, "अयं विहारो अप्पभिक्खुको, सचे केचि आगमिस्सन्ति, 'कुतो इमे एत्तका एकसदिसा भिक्खू, अद्धा थेरस्स एस आनुभावो' ति मं जानिस्सन्ती" ति अप्पिच्छताय वा अन्तरा व "एको होमी" ति इच्छन्तेन पादकज्झानं समापज्जित्वा वुट्ठाय "एको होमी" ति परिकम्मं कत्वा पुन समापज्जित्वा वुढाय "एको होमी" ति अधिट्ठातब्बं । अधिट्टानचित्तेन सद्धिं येव एको होति। एवं अकरोन्तो पन यथापरिच्छिन्नकालवसेन सयमेव एको होति।
__ आविभावपाटिहारियं १५. आविभावं तिरोभावं ति। एत्थ आविभावं करोति तिरोभावं करोती ति अयमत्थो। इममेव हि सन्धाय पटिसम्भिदायं वुत्तं-"आविभावं ति केनचि अनावटं होति अप्पटिच्छन्न विवटं पाकटं। तिरोभावं ति केनचि आवटं होति पटिच्छन्नं पिहितं पटिकुजितं (खु. नि०
केश, आधे लाल चीवर या पीले चीवर वालों को, या पद-पाठी, धर्मकथाकार, सस्वर पढ़ने वालों, प्रश्न पूछने-उत्तर देने वालों को; रंगने, पकाने, चीवर सीने-धोने आदि कार्य करने वालों को या दूसरे भी नाना प्रकार (के रूपों) को निर्मित करना चाहता है तो उसे आधारभूत ध्यान से उठकर, 'इतने भिक्षु प्रथम वय के हों'-आदि प्रकार से परिकर्म करके, पुनः समापन होने के बाद उठकर अधिष्ठान करना चाहिये। अधिष्ठान करते ही यथाभीष्ट प्रकार के ही रूप निर्मित होते हैं।
बहुभाव-प्रातिहार्य १४. 'बहुत होकर भी एक होता है' आदि में भी यही विधि है।
किन्तु विशेषता यह है-यदि यह भिक्षु यों अनेक रूपों का निर्माण करने के बाद यह सोचकर कि 'एक ही रहकर चंक्रमण करूँगा, पारायण करूँगा, प्रश्न पूछूगा', अथवा अल्पेच्छता के कारण यह सोचकर कि "यह विहार थोड़े-से भिक्षुओं वाला है, यदि कोई लोग आयेंगे तो'ये पूर्णत: एक जैसे भिक्षु कहाँ से आ गये, निश्चय ही यह स्थविर का चमत्कार है'-ऐसा सोचकर मुझे ऋद्धिमान् मानेंगे"-एक होना चाहता है, तो उसे परिकर्म करने के पश्चात् पुनः समापन होकर एवं उठकर 'एक हो जाऊँ'-यों अधिष्ठान करना चाहिये। अधिष्ठान करते ही एक हो जाता है। यदि ऐसा नहीं करता है तो कालक्रमानुसार अपने आप ही एक हो जाता है।
आविर्भाव-प्रातिहार्य १५. आविभावं तिरोभावं-इसका अर्थ यह है-आविर्भाव करता है, तिरोहित करता है। इसी सन्दर्भ में पटिसम्भिदामग्ग में कहा गया है-आविर्भाव अर्थात् किसी से भी अनावृत्त,