Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 309
________________ २८२ विसुद्धिमग्गो अथ वा-पज्जते अनेना ति पादो। पापुणीयती ति अत्थो। इद्धिया पादो इद्धिपादो। छन्दादीनमेतं अधिवचनं। यथाह-"छन्दं चे, भिक्खवे, भिक्खु निस्साय लभति समाधिं, लभति चित्तस्सेकग्गतं, अयं वुच्चति छन्दसमाधि। सो अनुप्पन्नानं पापकानं..पे०...पदहति, इमे वुच्चन्ति पधानसङ्घारा। इति अयं च छन्दो अयं च छन्दसमाधि इमे च पधानसङ्खारा-अर्य वुच्चति, भिक्खवे, छन्दसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतो इद्धिपादो" (सं० नि० ४/२२९) ति। एवं सेसिद्धिपादेसु पि अत्थो वेदितब्बो। (२) .. ___ अट्ठ पदानी ति। छन्दादीनि अट्ठ वेदितब्बानि। वुत्तं हेवं-"इद्धिया कतमानि अट्ठ पदानि? छन्दं चे भिक्खु निस्साय लभति समाधिं, लभति चित्तस्सेकरगतं, छन्दो न समाधि, समाधि न छन्दो, अञ्जो छन्दो अञो समाधि। विरियं चे भिक्खु..चित्तं चे भिक्खु..वीमंसं चे भिक्खु निस्साय लभति समाधिं, लभति चित्तस्सेकग्गतं, वीमंसा न समाधि, समाधि न वीमंसा, अजा वीमंसा अञ्जो समाधि। इद्धिया इमानि अट्ठ पदानि इद्धिलाभाय...पे०... इद्धिवेसारजाय संवत्तन्ती" (खु० नि० ५/४६८)। एत्थ हि इद्धिं उप्पादेतुकामताछन्दो समाधिना एकतो नियुत्तो व इद्धिलाभाय संवत्तति। तथा विरियादयो। तस्मा इमानि अट्ठ पदानि वुत्तानी ति वेदितब्बानि। (३) सोळस मलानी ति। सोळस हि आकारेहि अनेञ्जता चित्तस्स वेदितब्बा। वुत्तं हेतं"इद्धिया कति मूलानि? सोळस मूलानि। १. अनोनतं चित्तं कोसज्जे न इञ्जती ति आनेझं। २. अनुन्नतं चित्तं उद्धच्चे न इञ्जती ति आनेझं। ३. अनभिनतं चित्तं रागे न इञ्जती ति आनेझं। अथवा-इसके द्वारा पहुँचाया जाता है (पदयते) अत: पाद है। अर्थात् पाया जाता है। ऋद्धि का पाद-ऋद्धिपाद । यह छन्द आदि का अधिवचन है। जैसा कि कहा है-'भिक्षुओ! यदि भिक्षु छन्द के सहारे समाधि का लाभ करता है, चित्त की एकाग्रता का लाभ करता है, तो इसे छन्द-समाधि कहते हैं। वह अनुत्पन्न पापों को...पूर्ववत्...जला देता है। इसे प्रधान संस्कार कहते हैं, यों, यह छन्द, यह छन्दसमाधि एवं ये प्रधानसंस्कार-भिक्षुओ! इसे छन्दसमाधि-प्रधान-संस्कार से समन्वागत ऋद्धिपाद कहते हैं" (सं० नि० ४/२२९)। इसी प्रकार शेष ऋद्धिपादों का अर्थ भी जानना चाहिये। (२) आठ पद-छन्द आदि आठ (को आठ पद) जानना चाहिये; क्योंकि कहा है-"ऋद्धि के कौन से आठ पद हैं? यदि भिक्षु छन्द के सहारे समाधि का लाभ करता है, चित्त की एकाग्रता का लाभ करता है, तो (छन्द और समाधि को एक ही नहीं समझ लेना चाहिये; क्योंकि उनमें साधन-साध्य का सम्बन्ध है) न छन्द समाधि है, न समाधि ही छन्द है। छन्द अन्य है, समाधि अन्य। ऋद्धि के ये आठ पद ऋद्धि-लाभ के लिये...पूर्ववत्...वैशारद्य के लिये होते हैं" (खु० नि० ५/४६८)। क्योंकि यहाँ वही छन्द, जो ऋद्धि को उत्पन्न करना चाहता है, समाधि के साथ जुड़कर ऋद्धि के लाभ का कारण होता है। वैसे ही वीर्य आदि भी। इसलिये ये आठ पद बतलाये गये हैं, ऐसा जानना चाहिये। (३) सोलह मूल-चित्त का अविचलित होना सोलह रूपों में जानना चाहिये। क्योंकि कहा है-"ऋद्धि के कितने मूल हैं? सोलह मूल हैं। १. अनवनत (न गिरा हुआ) चित्त कौसीद्य

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