Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 307
________________ न भयो। " २८० विसुद्धिमग्गो अभिनिन्नामेती ति। सो भिक्खु वुत्तप्पकारवसेन तस्मि चित्ते अभिञापादके इद्धिविधाधिगमत्थाय परिकम्मचित्तं अभिनीहरति। कसिणारम्मतो अपनेत्वा इद्धिविधाभिमुखं पेसेति। अभिनिन्नामेती ति। अधिग्रन्तब्बइद्धिपोणं इद्धिपब्भारं करोति। सो ति। सो एवं कतचित्ताभिनीहारो भिक्खु। अनेकविहितं ति। अनेकविधं नानप्पकारकं। इद्धिविधं ति। इद्धिकोट्ठासं। पच्चनुभोती ति। पच्चनुभवति। फुसति, सच्छिकरोति, पापुणाती ति अत्थो। १०. इदानिस्स अनेकविहितभावं दस्सेन्तो-"एको पि हुँत्वा" ति आदिमाह। तत्थ एको पि हुत्वा ति। इद्धिकरणतो पुब्बे पकतिया एको पि हुत्वा। बहुधा होती ति। बहूनं सन्तिके चङ्कमितुकामो वा सज्झायं वा कत्तुकामो पहं वा पुच्छितुकामो हुत्वा सतं पि सहस्सं पि होति। कथं पनायमेवं होति? इद्धिया चतस्सो भूमियो, चत्तारो पादा, अट्ठ पदानि, सोळस च मूलानि सम्पादेत्वा आणेन अधि?हन्तो। तत्थ चतस्सो भूमियो ति। चत्तारि झानानि वेदितब्बानि। वुत्तं हेतं धम्मसेनापतिना"इद्धिया कतमा चतस्सो भूमियो? विवेकजभूमि पठमं झानं, पीतिसुखभूमि दुतियं झानं, उपेक्खासुखभूमि ततियं झानं, अदुक्खमसुखभूमि चतुत्थं झानं। इद्धिया इमा चतस्सो भूमियो इद्धिलाभाय इद्धिपटिलाभाय इद्धिविकुब्बनाय इद्धिविसविताय इद्धिवसिताय इद्धिवेसारजाय संवत्तन्ती" (खु० नि० ५/४६७) ति। एत्थ च पुरिमानि तीणि झानानि यस्मा पीतिफरणेन च सुखफरणेन च सुखसखं च लहुसनं च ओक्कमित्वा लहुमुदुकम्मञकायो ९. इद्धिविधाय-ऋद्धि के भेदों (भागों) के लिये, या ऋद्धि के विकल्पों के लिये। चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति-जब वह चित्त उक्त प्रकार से अभिज्ञा के लिये आधार हो जाता है, तब वह भिक्षु ऋद्धिविध चित्त को ऋद्धिविध की प्राप्ति की तरफ अभिनीहरति-ले जाता है। अभिनिन्नामेति-प्राप्तव्य ऋद्धि की ओर झुकाता है, नवाता है। सो-चित्त से यों सङ्कल्प करने वाला भिक्षु । अनेकविहितं-अनेकविध, नाना प्रकार के। इद्धिविधं-ऋद्धिविध को। पच्चनुभोति-प्रत्यनुभव करता है। अर्थात् सम्पर्क में आता है, साक्षात्कार करता है, प्राप्त करता है। १०. अब इसकी विविधता को दर्शाने के लिये 'एक होकर भी' आदि कहा गया है। वहाँ, एको पि हुत्वा-ऋद्धि करने के पूर्व स्वभावत: एक होकर भी बहुधा होति-यदि अनेक लोगों के समीप चंक्रमण करना चाहे, पारायण करना चाहे या प्रश्न पूछना चाहे, तो सौ या हजार (रूपों में) भी हो जाता है। किन्तु ऐसा किस प्रकार होता है? ऋद्धि की चार भूमियों, चार पादों, आठ पदों एवं सोलह मूलों का सम्पादन कर, ज्ञान द्वारा अधिष्ठान करते हुए। इनमें, चार भूमियों का अर्थ है चार ध्यान; क्योंकि धर्मसेनापति द्वारा यह कहा गया है"ऋद्धि की कौन सी चार भूमियाँ है?" प्रथम ध्यान विवेकज भूमि है, द्वितीय ध्यान प्रीतिसुखभूमि है, तृतीय ध्यान उपेक्षासुखभूमि है, चतुर्थ ध्यान अदु:खं-असुख भूमि है। ऋद्धि की ये चार भूमियाँ

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