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विसुद्धिमग्गो
कत्वा पुन अभिञ्ञापादकं झानं समापज्जित्वा वुट्ठाय अधिट्ठाति, अधिट्ठानचित्तेन सहेव सतं होति । सहस्सादीसु पि एसेव नयो । सचे एवं न इज्झति, पुन पुरिकम्मं कत्वा दुतियं पि समापज्जित्वा वुट्ठाय अधिट्ठातब्बं । संयुत्तट्ठकथायं हि "एकवारं द्वेवारं समापज्जितुं वट्टती" ति वृत्तं ।
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तत्थ पादकज्झानचित्तं निमित्तारम्मणं, परिकम्मचित्तानि सतारम्मणानि वा सहस्सारम्मणानि वा । तानि च खो वण्णवसेन, नो पण्णत्तिवसेन । अधिद्वानचित्तं पि तथेव सतारम्मणं वा सहस्सारम्मणं वा। तं पुब्बे वुत्तं अप्पनाचित्तमिव गोत्रभुअनन्तरं एकमेव उप्पज्जति रूपावचरचतुत्थज्झानिकं। (५)
बहुभावपाटिहारियं
११. यं पि पटिसम्भिदायं वुत्तं - " पकतिया एको बहुकं आवज्जति सतं वा सहस्सं वा सतसहस्सं वा, आवज्जित्वा ञाणेन अधिट्ठाति - ' बहुको होमी' ति, बहुको होति, यथा आयस्मा चूळपन्थको" (खु०नि० ५ / ४७० ) ति । तत्रापि 'आवज्जती' ति परिकम्मवसेनेव वुत्तं।“ आवज्जित्वा ञाणेन अधिट्ठाती" ति अभिज्ञाञाणवसेन वुत्तं । तस्मा बहुकं आवज्जति, ततो तेसं पि परिकम्मचित्तानं अवसाने समापज्जति, समापत्तितो वुट्ठहित्वा पुन 'बहुको होमी' ति आवज्जित्वा ततो परं पवत्तानं तिण्णं चतुन्नं वा पुब्बभागचित्तानं अनन्तरा उप्पनेन
इच्छा करता है, तो ‘सौ हो जाऊँ' यह परिकर्म करता है । पुनः अभिज्ञा के आधारभूत ध्यान में समापन्न होने के बाद उठकर अधिष्ठान करता है। अधिष्ठान चित्त के साथ ही ( = अधिष्ठान करते ही) सौ हो जाता है । हजार में भी यही विधि है। यदि इस प्रकार सफलता न मिले, तो पुनः परिकर्म करके दुबारा भी समापन्न होने के बाद उठकर अधिष्ठान करना चाहिये । संयुक्त अट्ठकथा में कहा गया है) - " एक बार, दो बार समापन्न होना उचित है।"
यहाँ, आधारभूत (=पादक) ध्यान (से संयुक्त) चित्त का आलम्बन निमित्त होता है, किन्तु परिकर्म चित्तों के सौ आलम्बन या हजार आलम्बन होते हैं । एवं वे (सौ या हजार आलम्बन) वर्ण के रूप में न कि प्रज्ञप्ति के रूप में (अनेक) होते हैं। इसी प्रकार अधिष्ठान चित्त भी सौ आलम्बनों या हजार आलम्बनों वाला होता है। वह पूर्वोक्त अर्पणा - चित्त के समान, गोत्रभू के पश्चात् एक ही उत्पन्न होता है, जो रूपावचर चतुर्थ ध्यान वाला होता है। (५)
बहुभाव-प्रातिहार्य
११. यह जो पटिसम्भिदा में कहा गया है - " स्वभावतः एक ( होकर भी) वह (स्वयं का) बहुत के रूप में, सौ या हजार के रूप में आवर्जन करता है, आवर्जन के पश्चात् ध्यान द्वारा अधिष्ठान करता है - 'बहुत हो जाऊँ' (वह योगी ) आयुष्मान् चूलपन्थक के समान बहुत हो जाता है" (खु० नि० ५/४७० ) - वहाँ भी ' आवर्जन' का अर्थ 'परिकर्म' है। " आवर्जन के पश्चात् ज्ञान द्वारा अधिष्ठान करता है" - यह अभिज्ञा - ज्ञान के अर्थ में उक्त है। अतः बहुत का आवर्जन करता है, तत्पश्चात् उन परिकर्म-चित्तों के अन्तिम (चित्त) से समापन होता है, समापत्ति से उठकर 'बहुत हो जाऊँ' - यों आवर्जन करता है। तत्पश्चात् वह अभिज्ञाज्ञान से सम्बन्धित एक (चित्त) के द्वारा अधिष्ठान करता है, जो (चित्त) के उत्पन्न तीन या चार परिकर्मचित्तों के बाद उत्पन्न हुआ होता