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विसुद्धिमग्गो होन्ती ति वुत्तं होति। सा दसविधा। यथाह-“कति इद्धियो ति? दस इद्धियो"। पुन च परं आह-"कतमा दस इद्धियो? अधिट्ठाना इद्धि, विकुब्बना इद्धि, मनोमया इद्धि, आणविष्फारा इद्धि, समाधिविप्फारा इद्धि, अरिया इद्धि, कम्मविपाकजा इद्धि, पुजवतो इद्धि, विजामया इद्धि, तत्थ तत्थ सम्मापयोगपच्चया इज्झनटेन इद्धी" (खु०५/४६७) ति।
तत्थ "पकतिया एको बहुकं आवजति, सतं वा सहस्संवा सतसहस्संवा आवजित्वा आणेन अधिट्टाति, बहुको होमी" (खु० नि० ५/४७०) ति एवं विभजित्वा दस्सिता इद्धि अधिट्ठानवसेन निप्पन्नत्ता अधिट्ठाना इद्धि नाम। (१) . ..
"सो पकतिवण्णं विजहित्वा कुमारकवण्णं वा दस्सेति नागवण्णं वा ...पे०... विविधं पि सेनाब्यूहं दस्सेती" (खु० नि० ५/४७३) ति एवं आगता इद्धि पकतिवण्णविजहनविकारवसेन पवत्तता विकुब्बना इद्धि नाम। (२)
"इध भिक्खु इमम्हा काया अखं कायं अभिनिम्मिनाति रूपिं मनोमयं" (खु० नि० ५/४७३) ति इमिना नयेन आगता इद्धि सरीरब्भन्तरे अञस्सेव मनोमयस्स सरीरस्स निप्फत्तिवसेन पवत्तत्ता मनोमया इद्धि नाम। (३)
आणुप्पत्तितो पन पुब्बे वा पच्छारे वा तङ्खणे वा आणानुभावनिब्बत्तो विसेसो आणविष्फारा इद्धि नाम। वुत्तं हेतं-"अनिच्चानुपस्सनाय निच्चसाय पहानट्ठो इज्झती ति
१०. अन्य विधि है-इससे सत्त्व ऋद्धिप्राप्त होते हैं, अतः ऋद्धि हैं। ऋद्ध होते हैं अत: ऋद्धिमान्, वृद्धिमान्, उच्चतम स्तर को प्राप्त करने वाले होते हैं-यह अर्थ है।
वह (ऋद्धि) दस प्रकार की है। जैसा कि कहा है-"कितनी ऋद्धियाँ हैं? दस ऋद्धियाँ हैं।" तत्पश्चात् आगे कहा गया है-"ये कौन सी दस हैं ? १. अधिष्ठान..., २. विकुर्वण..., ३. मनोमय..., ४. ज्ञानविस्तार..., ५. समाधिविस्तार..., ६. आय..., ७. कर्मविपाकज... ८. पुण्यवान् की..., ९. विद्यामय और १०. यहाँ-वहाँ सम्यक् प्रयोग के फलस्वरूप ऋद्धन के अर्थ में ऋद्धि" (खु० नि० ५/४६७)।
__ अधिष्ठान ऋद्धि-इनमें स्वभावतः एक (होकर भी स्वयं को) अनेक, सौ, हजार या लाख भी (मानते हुए) आवर्जन (चित्त का ध्यानोन्मुख) करता है। आवर्जन के पश्चात् अधिष्ठान करता है-'अनेक हो जाऊँ' (खु० नि०५/४७०)। यों पृथक्तया दर्शित एवं अधिष्ठान-बल से उत्पन होने के कारण अधिष्ठान ऋद्धि कहलाती है। (१)
विकुर्वण ऋद्धि-"वह स्वाभाविक रूप को त्यागकर स्वयं को कुमार के रूप में या सर्प के रूप में दिखाता है ...पूर्ववत्... अनेकविध सेनाव्यूह के रूप में दिखलाता है" (खु० नि० ५/४७३)-यों आयी हुई ऋद्धि स्वाभाविक वर्ण के त्याग एवं विकार के रूप में प्रवृत्त होने से विकुर्वण ऋद्धि कहलाती है। (२)
__ मनोमय ऋद्धि-"यहाँ भिक्षु इस काय में अन्य काय का, मनोमय रूप का निर्माण करता १. आणुप्पत्तितो पुब्बे वा ति। अरहत्तमग्गजाणुपत्तितो पुब्बे वा विपस्सनाक्खणे, ततो पि वा पुब्बे अन्तिमभविकस्स पटिसन्धिग्गहणतो पट्ठाय ।
२. पच्छा वा। याव खन्धपरिनिब्बाना। ३. तङ्खणे वा। मग्गुप्पत्तिसमये।