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समाधिनिस
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सकलसरीरे अङ्गमङ्गानि अनुसटा सम्मिञ्जनपसारणादिनिब्बत्तका वाता। अस्सासो ति । अन्तो पविसननासिकवातो। पस्सासो ति । बहिनिक्खमननासिकवातो। एत्थ च पुरिमा पञ्च चतुसमुट्ठाना, अस्सासपस्सासा चित्तसमुट्ठाना व । सब्बत्थ यं वा पन पि किञ्चीति । इमिना पदेन अवसेसकोट्ठासेसु आपोधातुआदयो सङ्गहिता ।
इति वीसतिया आकारेहि पथवीधातु, द्वादसहि आपोधातु, चतूहि तेजोधातु, छहि वायोधातू तिद्वाचत्तालीसाय आकारेहि चतस्सो धातुयो वित्थारिता होन्ती ति । अयं तावेत्थ पाळिवण्णना ॥
१३. भावनानये पनेत्थ तिक्खपञ्ञस्स भिक्खुनो 'केसा पथवीधातु, लोमा पथवीधातू' ति एवं वित्थारतो धातुपरिग्गहो पपञ्चतो उपट्ठाति । 'यं थद्धलक्खणं, अयं पथवीधातु । यं आबन्धनलक्खणं, अयं आपोधातु । यं परिपाचनलक्खणं, अयं तेजोधातु । यं वित्थम्भनलक्खणं, अयं वायोधातू' ति एवं मनसिकरोतो पनस्स कम्मट्ठानं पाकटं होति । नातितिक्खपञ्चस्स पन एवं मनसिकरोतो अन्धकारं अविभूतं होति । पुरिमनयेन वित्थारतो मनसिकरोन्तस्स पाकटं होति ।
१४. कथं? यथा द्वीसु भिक्खूसु बहुपेय्यालं तन्तिं सज्झायन्तेसु, तिक्खपञ्ञ भिक्खु सकिं वा द्विक्खत्तुं वा पेय्यालमुखं वित्थारेत्वा ततो परं उभतो कोटिवसेनेव सज्झायं करोन्तो
शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों में व्याप्त, मोड़ने- फैलाने आदि को सम्भव बनाने वाली वायु । अस्सासोनासिका द्वारा भीतर प्रवेश करने वाली वायु । पस्सासो - नासिका द्वारा बाहर निकलने वाली वायु । एवं इनमें पूर्व की पाँच (वायु) चार (कर्म, चित्त, ऋतु, आहार) से उत्पन्न हैं, आश्वास-प्रश्वास केवल चित्त से ही उत्पन्न है । सर्वत्र यं वा पन पि किञ्चि - इस पद से अवशेष भागों में अप्-धातु आदि संगृहीत हैं ।
यों बीस प्रकार से पृथ्वीधातु का, बारह प्रकार से अब्धातु का, चार प्रकार से तेजोधातु का, छह प्रकार से वायु-धातु का - यों बयालीस प्रकार से चारों धातुओं का विस्तार (के साथ वर्णन) किया गया है ॥ यह यहाँ पालि की व्याख्या है।
भावनाविधि
१३. किन्तु भावनान्विधि में तीक्ष्णप्रज्ञ भिक्षु को "केश पृथ्वीधातु हैं, रोम पृथ्वीधातु हैं' यो विस्तार से धातु-ग्रहण प्रपञ्च जान पड़ता है। उसे तो इस प्रकार मनस्कार करने पर ही कर्मस्थान प्रकट होता है - " जो स्तम्भ (ठोस करना, दृढ़ होना) लक्षण वाली है, वह पृथ्वीधातु है। जो बन्धन लक्षण वाली है, वह अब्धातु है। 'जो परिपाचन लक्षण वाली है, वह तेजोधातु है। जो विष्कम्भन लक्षण वाली है, वह वायुधातु है।" किन्तु जिसकी प्रज्ञा अति तीक्ष्ण नहीं है, वह यदि यों (संक्षेप में) मनस्कार करता है तो उसका (कर्मस्थान) अस्पष्ट, अप्रकट होता है। (किन्तु) पूर्वविधि से विस्तारपूर्वक मनस्कार करने पर प्रकट होता है।
१४. कैसे ? जैसे (कोई) दो भिक्षु अनेक 'पेय्याल' (पुनरुक्ति) वाली तन्ति (वचन - पंक्ति) का पारायण कर रहे हों, तो तीक्ष्णप्रज्ञ भिक्षु एक दो बार पेय्याल का विस्तार करने के बाद (पुनरुक्तियों
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