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समाधिनिद्देसो
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त्वेव सङ्कं गच्छती" (म० नि० १/२४०) ति चत्तारो कोटासा वुत्ता, तेसु तं तं अन्तरानुसारिना आणहत्थेन विनिब्भुजित्वा, यो एतेसु थद्धभावो वा खरभावो वा अयं पथवीधातू ति पुरिमनयेनेव धातुयो परिग्गहेत्वा पुनप्पुनं 'पथवीधातु, आपोधातू' ति धातुमत्ततो निस्सत्ततो निज्जीवतो आवज्जितब्बं, मनसिकातब्बं, पच्चवेक्खितब्बं। .
तस्सेवं वायममानस्स न चिरेनेव धातुप्पेदावभासनपञापरिग्गहितो सभावधम्मारम्मणत्ता अप्पनं अप्पतो उपचारमत्तो समाधि उप्पज्जति॥
अयं सङ्केपतो आगते चतुधातुववत्थाने भावनानयो॥ १७. वित्थारतो आगते पन एवं वेदितब्बो
इदं कम्मट्ठानं भावेतुकामेन हि नातितिक्खपञ्जन योगिना आचरियसन्तिके द्वाचत्तालीसाय आकारेहि वित्थारतो उग्गण्हित्वा वुत्तप्पकारे सेनासने विहरन्तेन कतसब्बकिच्चेन रहोगतेन पटिसल्लीनेन १. ससम्भारसोपतो, २. ससम्भारविभत्तितो, ३. सलक्खणसोपतो, ४. सलक्खणविभत्तितो-एवं चतूहाकारेहि कम्मट्ठानं भावेतब्द।।
१८. तत्थ कथं ससम्भारसङ्केपतो भावेति? इध भिक्खु वीसतिया कोट्ठासेसु'थद्धाकारं पथवीधातू' ति ववत्थपेति । द्वादससु कोट्ठासेसु यूसगतं उदकसङ्घातं आबन्धनाकारं आपोधातू' भाव को दिखलाने के लिये, "जब अस्थि, स्नायु, मांस, चर्म द्वारा आकाश घेरा जाता है, तब 'रूप' यह संज्ञा उत्पन्न होती है" (म०नि० १/२४०)-यों चार भागों का उल्लेख किया गया है; उनमें से प्रत्येक को ज्ञानरूपी हस्त से अलग-अलग कर, जो इनमें स्तम्भन स्वभाव का हो या कठोर स्वभाव का हो उसे पृथ्वीधातु; इस प्रकार पूर्वोक्त विधि से ही धातुतः परिग्रहण कर, बार बार पृथ्वी धातु, अप्-धातु-यों धातुमात्र के रूप में, निःसत्त्व के रूप में, निर्जीव के रूप में ध्यान देना चाहिये, मनस्कार तथा प्रत्यवेक्षण करना चाहिये।
यो प्रयास करने वाले को शीघ्र ही धातु-प्रभेदों का स्पष्ट भान कराने वाली प्रज्ञा के बल से वह समाधि उत्पन्न होती है जो स्वभाव-धर्मों को आलम्बन बनाने से अर्पणा तक नहीं पहुँचती, उपचारमात्र होती है।
यह पालिपाठ में आये चतुर्धातुव्यवस्थान की भावनाविधि है। १७. विस्तृत रूप में चाहने पर इस के विषय में यों जानना चाहिये
इस कर्मस्थान की भावना के अभिलाषी, साधारण प्रज्ञा वाले योगी को आचार्य के समीप बयालीस प्रकारों को विस्तार के साथ सीख कर, उक्त प्रकार के शयनासन में विहार करते हुए, यों चार प्रकार से कर्मस्थान की भावना करनी चाहिये-१. संरचना करने वाले घटकों (ससम्भार) का संक्षेप करते हुए, २. संरचक घटकों का विश्लेषण करते हुए, ३. स्वलक्षणों का संक्षेप करते हुए, तथा ४. स्वलक्षणों का विश्लेषण करते हुए।
१८. इनमें, संरचक घटकों का संक्षेप करते हुए कैसे भावना करता है ? यहाँ भिक्षु (काय के) बीस भागों में "ठोस आकार पृथ्वीधातु है"-यों निश्चित करता है। बारह भागों में तरल १. केश, रोम, नख, दाँत, त्वचा, मांस, स्नायु, अस्थि, अस्थि-मज्जा, वृक्क (गुर्दा), हृदय, यकृत, क्लोम,
प्लीहा, फुफ्फुस, आँत, छोटी आँत, उदरस्थ पदार्थ, मल एवं मस्तिष्क। २. पित्त, कफ, पीव, रक्त, मेद, अश्रु, वसा, थूक, पोंटा, लसिका और मूत्र।