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समाधिनिद्देसो
२४५ जानन्ति–'अम्हेहि सेदो पग्घरती' ति, नपि सेदो जानाति–'अहं केसलोमकूपविवरेहि पग्घरामी' ति। अज्ञमळ आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा। इति सेदो नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति।
मेदो थूलस्स सकलसरीरं फरित्वा किसस्स जङ्घमंसादीनि निस्साय ठितो पत्थिन्नसिनेहो। तत्थ यथा हलिद्दिपिलोतिकपटिच्छन्ने मंसपुळे न मंसपुञ्जो जानाति–'मं निस्साय हलिद्दिपिलोतिका ठिता' ति, न पि हलिद्दिपिलोतिका जानाति–'अहं मंसपुझं निस्साय ठिता' ति; एवमेव न सकलसरीरे जङ्घादीसु वा ठितं मंसं जानाति–'मं निस्साय मेदो ठितो' ति, न पि मेदो जानाति–'अहं सकलसरीरे जङ्घादीसु वा मंसं निस्साय ठितो' ति। अचमचं आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा। इति मेदो नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो पत्थिन्नयूसो आबन्धनाकारो आपोधातू ति। ____ अस्सु यदा सञ्जायति तदा अक्खिकूपके पूरेत्वा तिट्ठति वा पग्घरति वा। तत्थ यथा उदकपुण्णेसु तरुणतालट्ठिकूपकेसु न तरुणतालटिकूपका जानन्ति–'अम्हेसु उदकं ठितं' ति, न पि तरुणतालट्ठिकूपकेसु ठितं उदकं जानाति–'अहं तरुणतालट्ठिकूपकेसु ठितं' ति; एवमेव न अक्खिकूपका जानन्ति-'अम्हेसु अस्सु ठितं' ति, न पि अस्सु जानाति–'अहं अक्खिकूपकेसु ठितं' ति। अचमचं आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा। इति अस्सु नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुञो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति।
वसा अग्गिसन्तापादिकाले हत्थतल-हत्थपिट्ठि-पादतल-पादपिट्ठि-नासापुट-नलाट- .. अंसकटेसु ठितविलीनस्नेहो। तत्थ यथा पक्खित्ततेले आचामे न आचामो जानाति–'मं तेलं 'हमसे पानी टपक रहा है', न ही कमलिनी आदि के गुच्छों के बीच से टपकता हुआ पानी जानता है-'मैं कमलिनी आदि के गुच्छों के छिद्रों से टपक रहा हूँ'; वैसे ही न केश-रोम कूपों के छिद्र जानते हैं-'मैं केश-रोम-कूपों के छिद्रों से बहता हूँ'-ये धर्म परस्पर...। यों, स्वेद...अप्-धातु
मेद-मेद (चर्बी)-स्थूल (शरीरधारी) के समस्त शरीर को व्याप्त कर एवं कृश के टखने के मांस आदि के सहारे स्थित रहने वाला गाढ़ा स्नेह (चिकनापन) है। जैसे हल्दी से रँगे (पीले) कपड़े के टुकड़े से मांसपुञ्ज बँका हो, तो मांसपुञ्ज नहीं जानता–'मुझ पर हल्दी रंगा कपड़े का टुकड़ा स्थित है', न ही पीला कपड़ा जानता है-'मैं मांस-पुञ्ज पर टिका हूँ'; वैसे ही न तो समस्त शरीर और न टखने आदि का मांस जानता है-'मेरे सहारे मेद स्थित है, न ही मेद जानता है'मैं समस्त शरीर या टखने आदि के मांस के सहारे स्थित हूँ'। ये धर्म परस्पर...। यों, मेद...अप् धातु है।
अश्रु-अश्रु जब उत्पन्न होता है, तब आँखों के गड्ढों को भरता है या बहता है। जैसे यदि ताड़ के तैयार (तरुण) फल की गिरियों के विवरों में जल भरा हो, तो तैयार फल की गिरियों के विवर नहीं जानते-हममें जल स्थित है', न ही ताड़ के तैयार फ़ल की गिरियों के विवरों में स्थित जल जानता है 'मैं उक्त विवरों में स्थित हूँ'; वैसे ही न तो आँखों के गड्डे जानते हैं