Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 277
________________ २५० विसुद्धिमग्गो २२. अपि च खो पन १. वचनत्थतो, २. कलापतो, ३. चुण्णतो, ४. लक्खणादितो, ५. समुट्ठानतो, ६. नानत्तेकत्ततो, ७. विनिब्भोगाविनिब्भोगतो, ८. सभागविसभागतो, ९. अज्झत्तिकबाहिरविसेसतो, १०. सङ्गहतो, ११. पच्चयतो, १२. असमन्नाहारतो, १३. पच्चयविभागतो ति इमेहि पि आकारेहि धातुयो मनसिकातब्बा। तत्थ वचनत्थतो मनसिकरोन्तेन पत्थटत्ता पथवी। अप्पोति आपियति अप्पायती ति वा आपो। तेजती ति तेजो। वायती ति वायो। अविसेसेन पन सलक्खणधारणतो दुक्खादानतो दुक्खाधानतो च धातू ति। एवं विसेससामवसेन वचनत्थतो मनसिकातब्बा। (१) कलापतो ति। या अयं केसा लोमा ति आदिना नयेन बीसतिया आकारेहि पथवीधातु, पित्तं सेम्हं ति च आदिना नयेन द्वादसहाकारेहि आपोधातु निद्दिट्टा, तत्थ यस्मा वण्णो गन्धो रसो ओजा चतस्सो चा पि धातुयो। अट्ठधम्मसमोधाना होति केसा ति सम्मुति। तेसं येव विनिब्भोगा नत्थि केसा ति सम्मुति ॥ तस्मा केसा पि अट्ठधम्मकलापमत्तमेव। तथा लोमादयो ति। यो पनेत्थ कम्मसमुट्ठानो कोट्ठासो, सो जीवितिन्द्रियेन च भावेन च सद्धिं दसधम्मकलापो पि होति। उस्सदवसेन पन पथवीधातु आपोधातू ति सङ्कं गतो। एवं कलापतो मनसिकातब्बा। (२). २२. इसके अतिरिक्त-१. शब्दार्थ से, २. कलाप से, ३. खण्डों से, ४: लक्षण आदि से, ५. उत्पत्ति से, ६. विभिन्नता एवं एकता से, ७. पृथक्करण-अपृथक्करण से, ८. समानता-असमानता से, ९. आभ्यन्तर एवं बाह्य भेद से, १०. संग्रह से, ११. प्रत्यय से, १२. चेतना (समनाहार) के अभाव से, १३. प्रत्यय-विभाग से-यों इन १३ प्रकारों से भी धातुओं का मनस्कार करना चाहिये। (१)शब्दार्थ से-इनमें शब्दार्थ के अनुसार मनस्कार करने वाले को विशेष एवं सामान्य के अनुसार यो शब्दार्थतः मनस्कार करना चाहिये (विशेष-स्वभावगत विशेषता। उसके अनुसार) प्रशस्त (फैली हुई) होने से पृथ्वी है। बहता है, बहकर फैलता है या तृप्त करता है, अत: अप् है। गर्म करता है, अत: तेज है। बहती है, अतः वायु है। __(अविशेष-सामान्य विशेषताओं के अनुसार-)स्वलक्षण को धारण करने से, दु:ख का ग्रहण करने से एवं दुःख को धारण करने से धातु है। यों, विशेष एवं सामान्य के अनुसार शब्दार्थतः मनस्कार करना चाहिये। - (२) कलाप से-जो यह केश, रोम आदि बीस प्रकार की पृथ्वीधातु एवं पित्त कफ आदि बारह प्रकार की जलधातु का निर्देश किया गया है, क्योंकि उनमें-वर्ण, गन्ध, रस, ओज और चारों धातुएँ-इन आठ धर्मों के साथ-साथ रहने पर 'केश' (संज्ञा) का व्यवहार होता है; उन (धर्मों) के अलग अलग हो जाने पर 'केश नहीं है' यह व्यवहार होता है। अत: केश भी आठ धर्मों के समूहमात्र ही हैं। वैसे ही रोम आदि भी। यहाँ, जो भाग कर्म से उत्पन्न है, वह जीवितेन्द्रिय के साथ एवं भाव (स्त्रीत्व-पुरुषत्व) के साथ दस धर्मों का

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