Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 271
________________ २४४ विसुद्धिमग्गो ति; एवमेव न सरीरस्स खाणुकण्टकादीहि अभिहतप्पदेसा जानन्ति–'अम्हेसु पुब्बो ठितो' ति, न पि पुब्बो जानाति–'अहं तेसु पदेसेसु ठितो' ति । अञ्जमलं आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा। इति पुब्बो नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति। लोहितेसु संसरणलोहितं पित्तं विय सकलसरीरं ब्यापैत्वा ठितं। सन्निचितलोहितं यकनट्ठानस्स हेट्ठाभागं पूरेत्वा एकपत्तपूरमत्तं वक्कहदषयकनपप्फासानि तेमेन्तं ठितं। तत्थ संसरणलोहिते अबद्धपित्तसदिसो व विनिच्छयो। इतरं पन यथा जजरकपाले ओवढे उदके हेट्ठा लेड्डखण्डादीनि तेमियमाने न लेड्डखण्डादीनि जानन्ति–'मयं उदकेन तेमियमाना' ति, न पि उदकं जानाति–'अहं लेड्डखण्डादीनि तेमेमी' ति; एवमेव न यकनस्स हेट्ठाभागट्ठानं वक्कादीनि वा जानन्ति–'मयि लोहितं ठितं, अम्हे वा तेमयमानं ठितं' ति, न पि लोहितं जानाति–'अहं यकनस्स हेट्ठाभागं पूरेत्वा वक्कादीनि तेमयमानं ठितं' ति। अचमनं आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा। इति लोहितं नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति। सेदो अग्गिसन्तापादिकालेसु केसलोमकूपविवरानि पूरेत्वा तिट्ठति चेव पग्घरति च। तत्थ यथा उदका अब्बूळ्हमत्तेसु भिसमुळाल-कुमुदनाळकलापेसु न भिसादिकलापविवरानि जानन्ति–'अम्हेहि उदकं पग्घरती' ति, न पि भिसादिकलापविवरेहि पग्घरन्तं उदकं जानाति–'अहं भिसादिकलापविवरेहि पग्घरामी' ति; एवमेव न केसलोमकूपविवरानि रक्त सञ्चित होकर पक जाता है, या जहाँ फोड़े-फुसी उत्पन्न होते हैं। जैसे यदि फरसे के प्रहार आदि के कारण वृक्ष से गोंद चूने लग जाय, तो वृक्ष नहीं जानता-'मुझमें गोंद स्थित है, न ही गोंद जानता है-'मैं वृक्ष के चोट खाये हुए भागों में स्थित हूँ'; वैसे ही न तो शरीर के वे भाग, जो कुश काँटे आदि से आहत हैं, जानते हैं-'हममें पीब स्थित है', न ही पीब जानती है'मैं उन उन भागों में स्थित हूँ'। ये धर्म... । यों, पीब अप् धातु है। रक्त-संसरण करने वाला रक्त समस्त शरीर को व्याप्त किये हुए हैं। सञ्चित रक्त यकृत् के स्थान के अवर (नीचले) भाग को पूर्ण करता हुआ एक पात्र भर परिमाण में, वृक्क हृदय और फुफ्फुस को तर करता हुआ स्थित है। इनमें संसरित रक्त के बारे में अबद्ध पित्त के समान ही समझना चाहिये। दूसरे (सञ्चित) के बारे में-जैसे यदि किसी पुराने घड़े से जल रिस-रिस कर नीचे रखे मिट्टी के ढेलों को भिगो रहा हो, तो मिट्टी के ढेले नहीं जानते–'हम जल द्वारा भिगोये जा रहे हैं, न ही जल जानता है-'मैं मिट्टी के ढेलों को भिगो रहा हूँ'; वैसे ही न तो यकृत् स्थान का अवर भाग, और न वृक्क आदि जानते हैं-'हममें रक्त स्थित हैं, या हमें भिगोते हुए स्थित है', न ही रक्त जानता है-'मैं यकृत के अवर भाग को पूर्ण करते हुए, वृक्क आदि को भिगोते हुए स्थित हूँ।' ये धर्म परस्पर... यों रक्त अप् धातु है। स्वेद-स्वेद (पसीना) अग्नि धूप आदि (के साथ सम्पर्क) के समय केश और रोम के छिद्रों में भरा भी रहता है, बहता भी रहता है। जैसे यदि कमलिनी-नाल एवं कमल-नाल के गुच्छे जल में से उखाड़ लिये जाँय, तो कमलिनी के गुच्छे; (के बीच के) छिद्र नहीं जानते

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