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विसुद्धिमग्गो ति ववत्थपेति । चतूसु कोट्टासेसु 'परिपाचनकतेजं तेजोधातू' ति ववत्थपेति। छसु कोट्ठासेसु 'वित्थम्भनाकारं वायोधातू' ति ववत्थपेति । तस्सेवं ववत्थापयतो येव धातुयो पाकटा होन्ति। ता पुनप्पुनं आवज्जयतो मनसिकरोतो वुत्तनयेनेव उपचारसमाधि उप्पज्जति। (१)
१९. यस्स पन एवं भावयतो कम्मट्ठानं न इज्झति; तेन ससम्भारविभत्तितो भावेतब्बं। कथं? तेन हि भिक्खुना यं तं कायगतासतिकम्मट्ठाननिद्देसे सत्तधा उग्गहकोसल्लं' दसधा मनसिकारकोसल्लं२ च वुत्तं, द्वत्तिंसाकारे ताव- तं सब्बं अपरिहापेत्वा तचपञ्चकादीनं अनुलोमपटिलोमतो वचसा सज्झायं आदि कत्वा सब्बं तत्थ वुक्तविधानं कातब्बं । अयमेव हि विसेंसो-तत्थ वण्ण-सण्ठान-दिसोकास-परिच्छेदवसेन केसादयो मनसिकरित्वा पि पटिक्कूलवसेन चित्तं ठपेतब्बं, इध धातुवसेन। तस्मा वण्णादिवसेन पञ्चधा केसादयो मनसिकरित्वा अवसाने एवं मनसिकारो पवत्तेतब्बो
इमे केसा नाम सीसकटाहपलिवेठनचम्मे जाता। तत्थ यथा वम्मिकमत्थके जातेसु कुण्ठतिणेसु न वम्मिकमत्थको जानाति–'मयि कुण्ठतिणानि जातानी' ति, नपि कुण्ठतिणानि जानन्ति–'मयं वम्मिकमत्थके जातानी' ति; एवमेव न सीसकटाहपलिवेठनचम्मं जानाति
तथा उदक (जल) कहलाने वाली बन्धनाकार अप् धातु है, यह निश्चय करता है। चार भागों में परिपाचन करने वाला तेज (शरीर की उष्णता) तेजो धातु है-यों निश्चिय करता है। छह भागों में विष्टम्भन के आकार (=विशेषता) वाली वायु धातु है-ऐसा निश्चय करता है। जब वह ऐसा निश्चय करता है, तभी धातुएँ प्रकट (स्पष्टतः ज्ञात) होती हैं। उन पर बार बार ध्यान देने, मनस्कार करने से ही उक्त प्रकार से उपचारसमाधि उत्पन्न होती है। (१)
१९. किन्तु जिसे यों भावना करने पर कर्मस्थान में सफलता न मिले, उसे संरचना करने वाले घटकों का विश्लेषण करते हुए भावना करनी चाहिये। कैसे? उस भिक्षु द्वारा यह जो 'कायगतस्मृतिकर्मस्थाननिर्देश' में सात प्रकार का उद्ग्रहकौशल एवं दस प्रकार का मनस्कारकौशल' बतलाया गया है, बत्तीस प्रकार में से किसी को भी न छोड़ते हुए, सर्वप्रथम त्वक्-पञ्चक आदि का अनुलोम रूप में एवं प्रतिलोम रूप में पाठ करना चाहिये, तब वे सब कहे गये विधान करने चाहियें, विशेषता बस इतनी है-वहाँ (कायगतास्मृति में) वर्ण, संस्थान, दिशा, अवकाश, परिच्छेद के अनुसार केश आदि का मनस्कार करने के बाद भी, उनका विचार प्रतिकूल के रूप में करना चाहिये; जबकि यहाँ (धातुव्यवस्थान के प्रसङ्ग में) धातु के रूप में। इसलिये वर्ण आदि के रूप में पाँच प्रकार से केश आदि का मनस्कार करने के बाद अन्त में यों मनस्कार करना चाहिये
केश-ये केश कपाल को ढंकने वाले भीतरी चर्म में उत्पन्न होते हैं। जैसे वल्मीक (दीमक की बाँबी) पर उग आये कुण्ठ (?) तृणों के बारे में वल्मीक नहीं जानता-"मेरे ऊपर कुण्ठ तृण उग आये हैं", कुण्ठ तृण भी नहीं जानते-"हम वल्मीक के ऊपर उगे हैं", वैसे ही कपाल १. इमस्मि येव गन्थे ६८तमे पिढे दट्ठब्बं।
२. एतं पि एत्थेव ७१तमे पिढे दट्ठब्बं । ३. (१) जिससे तपता है, (२) जीर्ण होता है, (३) जलता है, (४) जिससे खाया पिया आदि पचता है-ये ही चार भाग हैं।
४. द्र० यही ग्रन्थ, पृष्ठ-६८। ५. यही ग्रन्थ, पृष्ठ-७१।