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विसुद्धिमग्गो
पत्तिभावेन हि सेट्ठा एते विहारा । यथा च ब्रह्मानो निद्दोसचित्ता विहरन्ति, एवं एतेहि सम्पयुत्ता योगिनो ब्रह्मसमा हुत्वा विहरन्ती ति सेट्ठद्वेन निद्दोसभावेन च ब्रह्मविहारा ति वुच्चन्ति। ५९. कस्मा च चतस्सो वा? ति आदि पहस्स पन इदं विसज्जनं
विसुद्धिमग्गादिवसा चतस्सो हितादिआकारवसा पनासं।
कमो, पवत्तन्ति च अप्पमाणे ता गोचरे येन तदप्पमञा॥ एतासु हि यस्मा मेत्ता व्यापादबहुलस्स, करुणा विहेसाबहलस्स, मुदिता अरतिबहुलस्स, उपेक्खा रागबहुलस्स विसुद्धिमग्गो। यस्मा च हितूपसंहार-अहितापनयन-सम्पत्तिमोदन-अनाभोगवसेन चतुब्बिधो येव सत्तेसु मनसिकारो। यस्मा च यथा माता दहर-गिलानयोब्बनप्पत्त-सकिच्चपसुतेसु चतूसु पुत्तेसु दहरस्स अभिवुड्डिकामा होति, गिलानस्स गेलञापनयनकामा, योब्बनप्पत्तस्स योब्बनसम्पत्तिया चिरट्ठितिकामा, सकिच्चपसुतस्स किस्मिचि परियाये? अव्यावटारे होति; तथा अप्पमाविहारिकेना पि सब्बसत्त्वेसु मेत्तादिवसेन भावेतब्बं । तस्मा इतो विसुद्धिमग्गादिवसा चतस्सो व अप्पमझा।
६०. यस्मा पन चतस्सो पेता भावेतुकामेन पठमं हिताकारप्पवत्तिवसेन सत्तेसु
इन का उत्तर यह है- श्रेष्ठ होने से, निर्दोष होने से उनका ब्रह्मविहार होना जानना चाहिये। क्योंकि सत्त्वों के प्रति सम्यक्प्रतिपत्ति रूप होने से ये विहार श्रेष्ठ हैं। एवं जैसे ब्रह्मा निर्दोष चित्त से साधना करते हैं, वैसे ही इनसे युक्त योगी ब्रह्मा के समान होकर साधना करते हैं। अतः श्रेष्ठ होने से, निर्दोष होने से 'ब्रह्मविहार' कही जाती हैं।
५९. चार ही क्यों हैं? आदि प्रश्र का यह उत्तर है
(क) विशुद्धि के मार्ग के अनुसार ये चार हैं। (ख) हित आदि (उद्देश्य) के अनुसार इनका यह क्रम है। (ग) वे अप्रमाण (सीमारहित) गोचर (क्षेत्र) में प्रवृत्त होती हैं, इसलिये अप्रमाण
हैं।
इनमें, क्योंकि मैत्री व्यापादबहुल (जिसमें व्यापाद अधिक हो) के लिये, करुणा प्रतिहिंसाबहुल के लिये, मुदिता अरतिबहुल के लिये एवं उपेक्षा रागबहुल के लिये विशुद्धि का मार्ग है; एवं क्योंकि हित करना, अहित को दूर करना, (पर) सम्पत्ति से मुदिता होना एवं पक्षपात न करना-इनके अनुसार सत्त्वों के प्रति चार प्रकार का ही मनस्कार होता है; एवं क्योंकि जैसे माता अपने अल्पवयस्क, रोगी, युवक एवं कार्यरत-इन चार पुत्रों में से अल्पवयस्क के वयस्क होने की कामना करती है, रोगी का रोग दूर होने की कामना करती है, युवक के लिये यौवनसम्पत्ति की चिरस्थिति की कामना करती है एवं कार्यरत पुत्र के किसी पर्याय (कार्य के अनुसार परिवर्तनक्रम) के प्रति अनुत्सुक होती है-वैसे ही अप्रामाण्यविहारी को भी सभी सत्त्वों के प्रति मैत्री आदि के अनुसार भावना करनी चाहिये। अत: चार विशुद्धि-मार्गों के अनुसार अप्रमाण चार ही हैं। (क)
६०. एवं क्योंकि इन चारों की ही भावना करने वाले को सर्वप्रथम हितैषी के रूप में
१. परियाये ति। वारे, तस्मि तस्मि किच्चवसेन परिवत्तनक्कमे ति अत्थो। २. अब्यावटा ति। अनुस्सुका। .