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ब्रह्मविहारनिद्देसो
१८५ तत्रायं वड्डनक्कमो-यथा हि कुसलो कस्सको कसितब्बट्ठानं परिच्छिन्दित्वा कसति, एवं पठममेव एकं आवासं परिच्छिन्दित्वा तत्थ सत्तेसु 'इमस्मि आवासे सत्ता अवेरा होन्तू' ति आदिना नयेन मेत्ता भावेतब्बा। तत्थ चित्तं मुदुं कम्मनियं कत्वा द्वे आवासा परिच्छिन्दितब्बा। ततो अनुक्कमेन तयो, चत्तारो, पञ्च, छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, एका रच्छा, उपड्डगामो, गामो, जनपदो, रज्जं, एका दिसा ति एवं याव एकं चक्कवाळं, ततो वा पन भिय्यो तत्थ तत्थ सत्तेसु मेत्ता भावेतब्बा। तथा करुणादयो ति-अयमेत्थ आरम्मणवड्वनक्कमो।
५७. यथा पन कसिणानं निस्सन्दो आरुप्पा, समाधिनिस्सन्दो नेवसानासचायतनं, विपस्सनानिस्सन्दो फलसमापत्ति, समथविपस्सनानिस्सन्दो निरोधसमापत्ति; एवं पुरिमब्रह्मविहारत्तयनिस्सन्दो एत्थ उपेक्खाब्रह्मविहारो। यथा हि धम्मे अनुस्सापेत्वा तुलासङ्घाटं अनारोपेत्वा न सक्का आकासे कूटगोपानसियो ठपेतुं, एवं पुरिमेसु ततियज्झानं विना न सक्का चतुत्थं भावेतुं ति॥
५८. एत्थ सिया-कस्मा पनेता मेत्ताकरुणामुदिताउपेक्खा ब्रह्मविहारा ति वुच्चन्ति? कस्मा च चतस्सो व? को च एतासं कमो? अभिधम्मे च कस्मा अप्पमञा ति वुत्ता ति?
वुच्चते-सेटटेन ताव निदोसभावेन चेत्थ ब्रह्मविहारता वेदितब्बा। सत्तेसु सम्मापटि
. ५६. इन सभी (ब्रह्मविहारों का) आरम्भ वह उत्साह (छन्द) है जो कार्य करने की इच्छा (कर्तृकामता) में निहित रहता है। नीवरण आदि का दब जाना (विष्कम्भन) मध्य है। अर्पणा पर्यवसान है। विचार के विषय (प्रज्ञप्तिधर्म) के रूप में एक या अनेक सत्त्व आलम्बन हैं। जब उपचार या अर्पणा प्राप्त होती है, तब आलम्बन में वृद्धि होती है।
वृद्धि का क्रम इस प्रकार है-जैसे कोई कुशल कृषक कृषियोग्य भूमि की सीमा बाँधकर जोतता है, वैसे सर्वप्रथम एक आवास की सीमा बाँधकर उसमें रहने वाले सत्त्वों के प्रति "इस आवास में सत्त्व वैररहित हों" आदि प्रकार से मैत्री की भावना करनी चाहिये। उसमें जब चित्त मृदु एवं कर्मण्य हो जाय, तब दो आवासों की सीमा बाँधनी चाहिये। तब क्रमशः तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, एक गली (रथ्या), आधा गाँव, गाँव, जनपद, राज्य, एक दिशा तक एवं इसी प्रकार (बढ़ते-बढ़ते) एक चक्रवाल (ब्रह्माण्ड) या उससे भी अधिक, वहाँ वहाँ के सत्त्वों के प्रति मैत्री भावना करनी चाहिये। एवं करुणा आदि में भी आलम्बनवृद्धि का यही क्रम है।
५७. जैसे कसिणों का फल आरूप्य हैं, समाधि का फल नैवसंज्ञानासंज्ञायतन है, विपश्यना का फल फलसमापत्ति है, शमथ और विपश्यना का फल निरोधसमापत्ति है; वैसे पूर्व के तीन ब्रह्मविहारों का फल उपेक्षाब्रह्मविहार हैं। जैसे खम्भों को गाड़े विना, बाँस-बल्ली से ढाँचा बनाये विना जिस पर छत टिकती है ऐसी (त्रिकोण के आकार की) ढालुई दीवाल (गोपानसी) आकाश में नहीं बनायी जा सकती, वैसे ही पहले के (ब्रह्मविहारों) में तृतीय ध्यान (प्राप्त किये) बिना चतुर्थ ध्यान की भावना नहीं की जा सकती।
५८. यहाँ ये प्रश्न उठ सकते हैं-ये मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा 'ब्रह्मविहार' क्यों कही जाती हैं ? एवं ये चार ही क्यों हैं ? एवं इनका क्रम क्या है ? तथा ये अभिधर्म में किसलिये अप्रमाण कही गयी हैं?