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आरुप्पनिद्देसो
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ति एवं विभने सज्ञानं येव समतिक्कमो वुत्तो। यस्मा पन आरम्मणसमतिक्कमेन पत्तब्बा एता समापत्तियो, न एकस्मि येव आरम्मणे पठमज्झानादीनि विय। तस्मा अयं आरम्मणसमतिक्कमवसेना पि अत्थवण्णना कता ति वेदितब्बा।
१०. पटिघसानं अत्थङ्गमा ति। चक्खादीनं वत्थूनं रूपादीनं आरम्मणानं च पटिघातेन समुप्पन्ना सञ्जा पटिघसञ्जा। रूपसञ्जादीनं एतं अधिवचनं। यथाह-"तत्थ कतमा पटिघसञा? रूपसज्ञा सद्दसझा गन्धसझा रससञा फोटुब्बसञ्जा, इमा वुच्चन्ति पटिघसञ्जायो" (अभि० २/३१४) ति। तासं कुसलविपाकानं पञ्चन्नं, अकुसलविपाकानं पञ्चन्नं ति सब्बसो दसन्नं पि पटिघसञ्जानं अत्थङ्गमा पहाना असमुप्पादा अप्पवत्तिं कत्वा ति वुत्तं होति।
कामं चेता पठमज्झानादीनि समापन्नस्सा पि न सन्ति । न हि तस्मि समये पञ्चद्वारवसेन चित्तं पवत्तति । एवं सन्ते पि अञ्जत्थ पहीनानं सुखदुक्खानं चतुत्थज्झाने विय, सक्कायदिट्ठादीनं ततियमग्गे विय च इमस्मि झाने उत्साहजननत्थं इमस्स झानस्स पसंसावसेन एतासं एत्थ वचनं वेदितब्बं।
११. अथ वा किञ्चापि ता रूपावचरं समापन्नस्सा पि न सन्ति, अथ खो न पहीनत्ता न सन्ति। न हि रूपविरागाय रूपावचरभावना संवत्तति, रूपायत्ता च एतासं पवत्ति । अयं व्यतिक्रान्त, समतिक्रान्त होती हैं, इसलिये कहा जाता है-सर्वथा रूपसंज्ञाओं का समतिक्रमण करके' (अभि० २/३१४)। क्योंकि आलम्बन के अतिक्रमण से इन समापत्तियों की प्राप्ति होती है, न कि प्रथम ध्यान आदि के समान एक ही आलम्बन में; अत: इस व्याख्या का सम्बन्ध आलम्बन के अतिक्रमण से भी है-ऐसा समझना चाहिये।
१०. पटिघसानं अत्थङ्गमा-चक्षु आदि वस्तुओं (चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय) एवं रूप आदि आलम्बनों (रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्प्रष्टव्य) के घात-प्रतिघात (परस्पर सम्पर्क) से उत्पन्न हुई संज्ञा प्रतिघसंज्ञा है। रूपसंज्ञा आदि को ही प्रतिघसंज्ञा कहते हैं। जैसा कि कहा है"कौन सी प्रतिघसंज्ञा है ? रूपसंज्ञा, शब्दसंज्ञा, गन्धसंज्ञा, रससंज्ञा, स्प्रष्टव्यसंज्ञा-ये प्रतिघसंज्ञाएँ कही जाती हैं।" (अभि० २/३१४)। पाँच कुशलविपाक एवं पाँच अकुशलविपाक-इन सभी दस प्रतिघसंज्ञाओं के अस्त प्रहीण एवं उत्पन्न होने से। अर्थात् उन्हें प्रवृत्त न करते हुए।
यद्यपि ये (प्रतिघसंज्ञाएँ) प्रथमध्यानलाभी में भी नहीं होती, क्योंकि उस समय (उसका) चित्त पाँच इन्द्रिय-द्वारों से प्रवृत्त नहीं होता; तथापि इस ध्यान के प्रति उत्साह उत्पन्न करने के लिये, इस ध्यान की प्रशंसा के रूप में, उन्हें यहाँ बतलाया गया है-यह जानना चाहिये। वैसे ही जैसे कि चतुर्थ ध्यान के प्रसङ्ग में सुख-दुःख का एवं तृतीय मार्ग (दु:खनिरोध) के प्रसङ्ग में सत्कायदृष्टि आदि का उल्लेख किया जाता है, जो कि अन्यत्र प्रहीण हो चुके होते हैं।
११. अथवा, यद्यपि वे रूपावचर (ध्यान)-लाभी में नहीं होती, किन्तु प्रहीण होने के कारण नहीं होती-ऐसा नहीं है। कारण यह है कि रूपावचर भावना रूप के प्रति विराग की ओर
१. एतासं ति। पटिघसानं।
२. अतिक्रान्त, व्यतिक्रान्त, समतिक्रान्त-इन ___ तीनों शब्दों का अर्थ एक ही है-जिसका अतिक्रमण किया गया है। 2-15