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आरुप्पनिद्देसो
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सायतनं ति वुच्चति। यथा पटिपन्नस्स सा सा होति, तं ताव दस्सेतुं विभने"नेवसञ्जीनासजी" ति उद्धरित्वा "तं येव आकिञ्चज्ञायतनं सन्ततो मनसि करोति, सङ्घारावसेससमापत्तिं भावेति, तेन वुच्चति-नेवसञीनासञ्जी" (अभि० २/३१६) ति वुत्तं । तत्थ सन्ततो मनसि करोती ति। "सन्ता वतायं समापत्ति, यत्र हि नाम नत्थिभावं पि आरम्मणं करित्वा ठस्सती" ति एवं सन्तारम्मणताय तं सन्ता ति मनसि करोति।
सन्ततो चे मनसि करोति, कथं समतिक्कमो होती ति? असमापज्जितुकामताय। सो हि किञ्चापि तं सन्ततो मनसिकरोति, अथ ख्वस्स "अहमेतं आवजिस्सामि, समापजिस्सामि, अधिट्ठहिस्सामि, वुट्टहिस्सामि, पच्चवेक्खिस्सामी" ति एस आभोगो समन्नाहारो मनसिकारो न होति। कस्मा? आकिञ्चज्ञायतनतो नेवसञ्जानासायतनस्स सन्ततर-पणीततरताय।
२८. यथा हि राजा महच्चराजानुभावेन हत्थिक्खन्धवरगतो नगरवीथियं विचरन्तो दन्तकारादयो सिप्पिके एकं वत्थं दळ्हं निवासेत्वा एकेन सीसं वेठेत्वा दन्तचुण्णादीहि समोकिण्णगत्ते अनेकानि दन्तविकतिआदीनि सिप्पानि,करोन्ते दिस्वा "अहो वत रे छेका आचरिया ईदिसानि पि नाम सिप्पानि करिस्सन्ती" ति एवं तेसं छेकताय तुस्सति, न चस्स एवं होति-"अहो वताहं रज्जं पहाय एवरूपो सिप्पिको भवेय्यं" ति। तं किस्स हेतु?
से अतिक्रमण करते हुए ही, क्योंकि इस नैवसंज्ञानासंज्ञायतन को प्राप्त कर विहार करना चाहिये, अत: दोनों के लिये ही "आकिञ्चन्यायतन का अतिक्रमण कर" ऐसा कहा गया जानना चाहिये।
२६. नेवसज्ञानासायतनं-यहाँ, जो उसका अभ्यास करता है, उसी में वह संज्ञा होती है, जिसकी उपस्थिति के कारण इस (समापत्ति) को "नैवसंज्ञानासंज्ञायतन" कहा जाता है। यही प्रदर्शित करने के लिये विभङ्ग में पहले, "नैवसंज्ञीनासंज्ञी" इसे उद्धृत कर, पुनः यह कहा गया है-"उसी आकिञ्चन्यायतन का शान्त के रूप में मनस्कार करता है, अवशिष्ट संस्कारों के साथ समापत्ति की भावना करता है, इसलिये कहते हैं-नैवसंजीनासंज्ञी" (अभि० २/३१६)। वहाँ सन्ततो मनसिकरोति-"यह समापत्ति शान्त है, क्योंकि यह नास्तित्व को भी आलम्बन बनाकर रह सकती है"-यों शान्त आलम्बन वाली होने से उसका शान्त के रूप में मनस्कार करता है।
२७. यदि शान्त के रूप में मनस्कार करता है, तो अतिक्रमण कैसे होता है? समापत्ति (प्राप्ति) की (वस्तुत:) इच्छा न होने से! क्योंकि यद्यपि वह उसका शान्त के रूप में मनस्कार करता है, तथापि उसे "मैं इसकी ओर अभिमुख होऊँगा, प्राप्त करूँगा, अधिष्ठान करूँगा, उससे उलूंगा, प्रत्यवेक्षण करूँगा" ऐसा विचार, प्रतिक्रिया या मनस्कार नहीं होता। क्यों? क्योंकि आकिञ्चन्यायतन की अपेक्षा नैवसंज्ञानासंज्ञायतन अधिक शान्त अधिक उत्कृष्ट है।
२८. जैसे कोई राजा स्वकीय राजवैभव का प्रदर्शन करते हुए हाथी पर बैठकर नगर की वीथियों पर विचरण करते समय देखे कि (हाथी) दाँत के कुछ शिल्पी चूर्ण आदि से धूल-धूसरित (हाथी-) दाँत को काटने-छीलने आदि अनेक प्रकार के शिल्पों में लगे हैं; तो वह उनकी निपुणता पर इस प्रकार सन्तोष अनुभव करता है-"ये (शिल्पविद्या के) आचार्य कितने निपुण हैं कि कला (कारीगरी) भी कर लेते हैं।" (किन्तु) वह राजा यह तो नहीं सोचता-"क्या ही अच्छा हो १. महता च राजानुभावेना त्यत्थो।