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विसुद्धिमग्गो
दक्खो गोघातको वा... पे०...निसिन्नो अस्स; एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु... पे०... वायोधातू"
ति ।
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११. महाहत्थिपदूमे (म० नि० १/ २६१) पन - " कतमा चावुसो, अज्झत्तिका पथवीधातु ? यं अज्झत्तं पच्चत्तं कक्खळं खरिगतं उपादिनं । सेय्यथीदं - केसा लोमा...पे.... उदरियं करीसं, यं वा पनञ्ञ पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं कंक्खळं खरिगतं उपादिनं - अयं वुच्चतावुसो, अज्झत्तिका पथवीधातू" ति च,
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'कतमा चावुसो, अज्झत्तिका आपोधातु ? यं अज्झतं पच्चत्तं आपो आपोगतं उपादिन्नं । सेय्यथीदं, पित्तं...पे.... मुत्तं, यं वा पन पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं आपो आपोगतं उपादिनं - अयं वुच्चतावुसो, अज्झत्तिका आपोधातू" ति च,
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'कत्तमा चावुसो, अज्झत्तिका तेजोधातु ? यं अज्झत्तं पच्चत्तं तेजो तेजोगतं उपादिनं । सेय्यथीदं - येन च सन्तप्पति, येन च जीरीयति, येन च परिंडव्हति येन च असितपीतखायितसायितं सम्मा परिणामं गच्छति, यं वा पन पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं तेजो तेजोगतं उपादिन्नं- अयं वुच्चतावुसो, अज्झत्तिका तेजोधातू" ति च,
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'कतमा चावुसो, अज्झत्तिका वायोधातु ? यं अज्झत्तं पच्चत्तं वायो वायोगतं उपादिन्नं । सेय्यथीदं - उद्धङ्गमा वाता, अधोगमा वाता, कुच्छिसया वाता, कोट्ठासया वाता,
पर सत्त्व - संज्ञा का लोप हो जाता है, चित्त धातु के अनुसार ही स्थित होता है। अतः भगवान् ने कहा है- " भिक्षुओ ! जैसे दक्ष गोघातक या ... . पूर्ववत्... बैठा हो; वैसे ही, भिक्षुओ ! भिक्षु... पूर्ववत्... वायुधातु है।" (१)
११. महाहत्थिपदूपमसुत्त - (म० १२ / २३५) में, जो अतितीक्ष्ण प्रज्ञावान् नहीं है ऐसे धातुकर्मस्थानिक के लिये, विस्तार से यों आया है—
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'आयुष्मन् ! आध्यात्मिक पृथ्वीधातु क्या है ? जो स्वयं के भीतर ठोस, कठोर ( रूक्ष), (कर्म द्वारा) उपात्त ('उपादिन्न', प्राप्त) है । यथा- - केश, रोम... पूर्ववत्... उदरस्थ पदार्थ, मल, या अन्य भी स्वयं के भीतर ठोस, कठोर उपादान है - आयुष्मन् ! इसे कहते हैं आध्यात्मिक पृथ्वीधातु । " एवं -
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'आयुष्मन् ! आध्यात्मिक अप्-धातु क्या है ? जो स्वयं के भीतर जल, जलगत (जल के सभी प्रकारों के अन्तर्गत आने वाला) उपादान है । यथा - पित्त... पूर्ववत्... मूत्र, या जो अन्य भी कोई स्वयं के भीत जल, जलगत उपादान है - आयुष्मन्, इसे कहते हैं आध्यात्मिक अप्धातु । " एवं
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'आयुष्मन्! आध्यात्मिक तेजोधातु क्या है ? जो स्वयं के भीतर तेज, तेजोगत एवं उपात्त है । यथा - जिससे सन्तप्त होता हैं, जिससे जीर्ण (वृद्धावस्था को प्राप्त) होता है, जिससे दग्ध होता है, एवं जिससे खाया-पिया, चबाया- चाटा हुआ (आहार) सम्यक् परिणाम उत्पन्न करता है। या जो अन्य भी कोई स्वयं के भीतर तेज, तेजोगत उपादान है - आयुष्मन्, इसे कहते हैं, आध्यात्मिक तेजोधातु।" एवं
"आयुष्मन्, आध्यात्मिक वायुधातु क्या है ? जो स्वयं के भीतर वायु, वायुगत उपादान है। यथा - ऊर्ध्व वायु, अधोवायु, कुक्षि- स्थित वायु, कोष्ठ-स्थित वायु, अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रहने वाली वायु,