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विसुद्धिमग्गो मुखेन पञ्चकामगुणिको रागो परिचं गच्छति। सो पञ्चकामगुणपरिामुखेन रूपक्खन्धं परिजानाति । अपरिपक्कादिपटिक्कूलभाववसेन चस्स कायगता सतिभावना पि पारिपूरि गच्छति। असुभसाय अनुलोमप्रटिपदं पटिपनो होति। इमं पन पटिपत्तिं निस्साय दिवेव धम्मे अमतपरियोसानतं अनभिसम्भुणन्तो सुगतिपरायनो होती ति॥
अयं आहारे पटिक्कूलसञ्जाभावनाय वित्थारकथा॥
चतुधातुववत्थानभावनाकथा ९. इदानि आहारे पटिक्कूलसानन्तरं एकं ववत्थानं ति एवं उद्दिदुस्स' चतुधातुववत्थानस्स भावनानिद्देसो अनुप्पत्तो । तत्थ ववत्थानं ति सभावूपलक्खणवसेन सन्निट्ठानं । चतुन्नं धातूनं ववत्थानं चतुधातुववत्थानं। धातुमनसिकारो, धातुकम्मट्ठानं, चतुधातुववत्थानं ति अत्थतो एकं । तयिदं द्विधा आगतं-सोपतो च, वित्थारतो च । सर्वोपतो महासतिपट्ठाने आगतं। वित्थारतो महाहत्थिपदूपमे, राहुलोवादे, धातुविभने च।।
१०. तं हि-"सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो गोघातको वा गोघातकन्तेवासी वा गाविं वधित्वा चतुमहापथे बिलसो विभजित्वा निसिन्नो अस्स; एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्ख इममेव कायं यथाठितं यथापणिहितं धातुसो पच्चवक्खति-अस्थि इमस्मि काये पथवीधातु
आहार करता है, केवल दुःख से पार जाने की इच्छा से। कवलीकार आहार का वास्तविक रूप जानने से, पञ्च कामगुणों के प्रति राग (का वास्तविक रूप) वह अनायास समझ जाता है। पञ्च कामगुणों को जानने से रूपस्कन्ध को भलीभाँति जान लेता है। अपरिपक्व आदि प्रतिकूलता के रूप में उसकी कायगत स्मृति-भावना भी परिपूर्ण हो जाती है। वह अशुभसंज्ञा के अनुरूप मार्ग पर चलने वाला होता है। वह इस मार्ग के सहारे इस जन्म में अमृतमय निर्वाण भले ही न प्राप्त कर पाये, परन्तु सुगति अवश्य प्राप्त करता है।
__ यह आहार में प्रतिकूलसंज्ञा-भावना की व्याख्या है।
चतुर्धातुव्यवस्थान-भावना ___९. आहार में प्रतिकूलसंज्ञा के बाद, अब 'एक व्यवस्थान'–यों (तृतीय परिच्छेद में) निर्दिष्ट चतुर्धातुव्यवस्थानरूप भावना के निर्देश (का प्रसङ्ग) आ गया। यहाँ, व्यवस्थान का तात्पर्य है स्वभाव का उपलक्षण करते (स्वभावगत विशेषता बतलाते) हुए निश्चय करना (परिभाषित करना)। चारधातुओं का व्यवस्थान-चतुर्धातुव्यवस्थान। धातु-मनस्कार, धातुकर्मस्थान, चतुर्धातुव्यवस्थान-ये अर्थतः एक ही हैं। (पालि में) यह (व्यवस्थान) दो प्रकार से आया है-संक्षेप में एवं विस्तार में। संक्षेप में महासतिपट्टान (सुत्त) में एवं विस्तार से महाहत्थिपदूपम, राहुलोवाद एवं धातुविभङ्ग में।
१०. तीक्ष्णप्रज्ञावाले धातुकर्मस्थानिक के लिये यह महासतिपट्ठानसुत्त (दी० नि० २/५२३) में इस प्रकार संक्षेप में आया है-"भिक्षुओ! जैसे कोई दक्ष गोघातक या उस गोघातक का शिष्य गाय को मारकर, टुकड़े-टुकड़े कर चौराहे पर बैठा हो; वैसे ही, भिक्षुओ, भिक्षु इस काया का,
१. ततियपरिच्छेदे ति सेसो।