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समाधिनिद्देसो
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होन्ति । परिभुत्तो समानो यथा नाम ओदने पच्चमाने थुसकणकुण्डकादीनि उत्तरित्वा उक्खलिमुखवट्टिपिधानियो मक्खेन्ति; एवमेव सकलसरीरानुगतेन कायग्गिना फेणुद्देहकं पच्चित्वा उत्तरमानो दन्ते दन्तमलभावेन सम्मक्खेति । जिव्हातालुप्पभुतीनि खेळसेम्हादिभावेन, अक्खिकण्णनासअधोमग्गादिके अक्खिगृथक-कण्णगूथक-सिङ्गाणिका-मुत्त-करीसादिभावेन सम्मक्खेति, येन सम्मक्खितानि इमानि द्वारानि दिवसे दिवसे धोवियमानानि पि नेव सुचीनि, न मनोरमानि होन्ति, तेसु एकच्चं धोवित्वा हत्थो पुन उदकेन धोवितब्बो होति, एकच्चं धोवित्वा द्वत्तिक्खत्तुं गोमयेन पि मत्तिकाय पि गन्धचुण्णेन पि धोवतो पटिक्कूलता न विगच्छती ति। एवं सम्मक्खनतो पटिक्कूलता पच्चवेक्खितब्बा। (१०)
७. तस्सेवं दसहाकारेहि पटिक्कूलतं पच्चवेक्खतो तक्काहतं वितक्काहतं करोन्तस्स पटिक्कूलाकारवसेन कवळीकाराहारो पाकटो होति। सो तं निमित्तं पुनप्पुनं आसेवति, भावेति, बहुलीकरोति। तस्सेवं करोतो नीवरणानि विक्खम्भन्ति। कबळीकाराहारस्स सभावधम्मताय गम्भीरत्ता अप्पनं अप्पत्तेन उपचारसमाधिना चित्तं समाधियति । पटिक्कूलाकारग्गहणवसेन पनेत्थ सञा पाकटा होति। तस्मा इमं कम्मट्ठानं 'आहारे पटिक्कूलसा ' इच्चेव सङ्कं गच्छति।
८. इमं च पन आहारे पटिक्कूलसञ्ज अनुयुत्तस्स भिक्खुनो रसतण्हाय चित्तं पतिलीयति, पतिकुटति, पतिवट्टति। सो कन्तारनित्थरणत्थिको विय पुत्तमंसं विगतमदो आहारं आहारेति यावदेव दुक्खस्स नित्थरणत्थाय। अथस्स अप्पकसिरेनेव कबळीकाराहारपरिज्ञा
गन्ध दूर करने के लिये बारंबार धोना पड़ता है। खा लिया जाने पर समस्त शरीर में व्याप्त शरीर के ताप से फेन छोड़ता हुआ पकता है तथा ऊपर उतराता है, दाँत में दाँत की मैल के रूप में चिपकता है जीभ, तालु आदि में थूक, कफ आदि होकर, वैसे ही जैसे कि चावल पकते समय भूसी, कनी आदि ऊपर उतराकर हाँडी के ऊपरी भाग के किनारों और ढक्कन में चिपकते हैं। आँख, कान, नाक, अधोमार्ग आदि में आख कान का मैल, 'पोंटा, मूत्र, मल आदि के रूप में लिपटता है, जिससे लिपटे हुए ये द्वार नित्य धोये जाने पर भी न पवित्र होते हैं, न मनोरम होते हैं। उनमें से किसी किसी को धोकर हाथ को फिर से जल से धोना पडता है, किसी किसी को धोकर दो तीन बार गोबर मिट्टी, या सुगन्धित चूर्ण से भी धोने पर प्रतिकूलता (दुर्गन्ध, अशुचि) नहीं जाती है। यों संम्रक्षण से प्रतिकूलता का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। (१०)
७. जब वह यों दस प्रकार से प्रतिकूलता का प्रत्यवेक्षण करता है, तर्क-वितर्क करता है, तब कवलीकार आहार की प्रतिकूलता स्पष्टत: प्रकट (प्रतीत) होती है। वह उस निमित्त की ओर बार बार मन लगाता है, भावना करता है, अभ्यास करता है। उसके ऐसा करने पर नीवरण दब जाते हैं। कवलीकार आहार के स्वभावतः गम्भीर होने से अर्पणा नहीं प्राप्त होती, उपचारसमाधि द्वारा चित्त समाहित होता है। क्योंकि यहाँ संज्ञा आहार की प्रतिकूलता के रूप में प्रकट होती है, अतः इस कर्मस्थान को 'आहार में प्रतिकूलसंज्ञा' कहा जाता है।
८. इस 'आहार में प्रतिकूलसंज्ञा में लगे हुए भिक्षु का चित्त रस-तृष्णा से विमुख हो जाता है, हट जाता है, लौट जाता है। जैसे दुर्गम वन को पार करने का अभिलाषी (अतिकठिन परिस्थिति में जीवनरक्षा के लिये) पुत्र का मांस (भी खा लेता है), वैसे ही (यह योगी) मदरहित होकर