________________
२१०
विसुद्धिमग्गो
रज्जसिरिया महानिसंसताय । सो सिप्पिनो समतिक्कमित्वा व गच्छति । एवमेव एस किञ्चापि तं समापत्तिं सन्ततो मनसिकरोति, अथ ख्वस्स - " अहमेतं समापत्तिं आवज्जिस्सामि, समापज्जिस्सामि, अधिट्ठहिस्सामि, वुटुहिस्सामि, पच्चवेक्खिस्सामी" ति नेव आभोगो समन्नाहारो मनसिकारो होति ।
सो तं सन्ततो मनसिकरोन्तो पुब्बे वुत्तनयेन तंपरमसुखुमं अप्पनापत्तं स पापुणाति, याय नेवसञ्जीनासञ्जी नाम होति, सङ्घारावसेससमापत्तिं भावेतीति वुच्चति । सङ्घारावसेससमापत्तिं ति। अच्चन्तसुखुमभावप्पत्तसङ्घारं चतुत्थारुप्पसमापत्तिं ।
२९. इदानि यं तं एवं अधिगताय सञ्ञाय वसेन नेवसनासञायतनं ति वुच्चति, तं अत्थतो दस्सेतुं –“नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं ति नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समापनस्सा उपन्नस्स वा दिट्ठधम्मसुखविहारिस्स वा चित्तचेतसिका धम्मा" (अभि० २ / ३१६ ) ति वृत्तं । तेसु इध समापन्नस्स चित्तचेतसिका धम्मा अधिप्पेता ।
वचनत्थो पनेत्थ ओळारिकाय सञ्ञाय अभावतो सुखुमाय च भावतो नेवस्स ससम्पयुत्तधम्मस्स झानस्स सञ्ञा नासञ्ञा ति नेवसञ्जानास । नेवसञ्जनासञ्जं च तं, मनायतनधम्मायतनपरियापन्नत्ता आयतनं चा ति नेवसञ्जनासञायतनं।
अथवा यायमेत्थ सञ्ञ, सा पटुसञ्जाकिच्चं कातुं असमत्थताय नेव सञ्ञा,
यदि मैं राज्य छोड़कर ऐसा ही शिल्पी बन जाऊँ ।" क्यों ? क्योंकि राज्य श्री में अधिक गुण हैं। (अतः) वह शिल्पियों का अतिक्रमण कर (उन्हें वहीं छोड़कर) चला जाता है। वैसे ही यद्यपि यह (योगी) उस समापत्ति का शान्त के रूप में मनस्कार करता है, तथापि उसे – “मैं इस समापत्ति
ओर अभिमुख होऊँगा, प्राप्त करूँगा, अधिष्ठान करूँगा, उरूँगा, प्रत्यवेक्षण करूँगा " - ऐसा विचार, प्रतिक्रिया या मनस्कार कभी नहीं होता ।
वह उसका शान्त के रूप में मनस्कार करते हुए पूर्वोक्त प्रकार से उस परम सूक्ष्म, अर्पणा के स्तर तक पहुँची हुई संज्ञा को प्राप्त करता है, जिसके कारण उसे नैवसंज्ञीनासंज्ञी कहा जाता है, एवं उसके विषय में कहा जाता है कि वह अवशिष्ट संस्कारों के साथ समापत्ति की भावना करता है । सङ्घारावसेससमापत्तिं - चतुर्थ अर्थात् आरूप्य समापत्ति को, जिसके संस्कार अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था में होते हैं ।
२९. अब जिसे यों अधिगत संज्ञा के कारण नैवसंज्ञानासंज्ञायतन कहा जाता है, उसे अर्थतः प्रदर्शित करने के लिये यह कहा गया है- "नैवसंज्ञानासंज्ञायतन-नैवसंज्ञानासंज्ञायतन को प्राप्त करने वाले के या दृष्टधर्मसुखविहारी के चित्त - चैतसिक धर्म " ( अभि० २ / ३१६) । उनमें से, समापत्तिलाभ के चित्तचैतसिक धर्म यहाँ अभिप्रेत हैं । यहाँ शाब्दिक अर्थ यह है कि स्थूल संज्ञा का अभाव होने एवं सूक्ष्म संज्ञा का भाव होने से इसके सम्प्रयुक्त धर्मध्यान की न तो संज्ञा है न असंज्ञा; अतः नैवसंज्ञानासंज्ञायतन है। वह नैवसंज्ञानासंज्ञा है तथा मनआयतन एवं धर्मायतन से युक्त होने के कारण आयतन भी है, इसलिये नैवसंज्ञानासंज्ञायतन है।
अथवा जो यहाँ संज्ञा है, वह संज्ञा के निश्चित कृत्य को करने में असमर्थ है, अतः संज्ञा