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आरुप्पनिद्देसो
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सङ्घारावसेससुखुमभावेन विजमानत्ता नासा ति नेवसञ्जानासझा। नेवसानासा' च सा सेसधम्मानं अधिट्ठानटेन आयतनं चाति नेवसञानासज्ञायतनं।
३०. न केवलं चेत्थ सञ्जा व एदिसी, अथ खो वेदना पि नेववेदनानावेदना, चित्तं पि नेवचित्तंनाचित्तं, फस्सो पि नेवफस्सोनाफस्सो। एस नयो सेससम्पयुत्तधम्मेसु। सञासीसेन पनायं देसना कता ति वेदितब्बा।
पत्तमक्खनतेलप्पभुतीहि च उपमाहि एस अत्थो विभावेतब्बो
सामणेरो किर तेलेन पत्तं मक्खेत्वा ठपेसि। तं यागुपानकाले थेरो "पत्तमाहारा" ति आह । सो "पत्ते तेलमत्थि, भन्ते" ति आह । ततो "आहर, सामणेर, तेलं, नाळिं पूरेस्सामी" ति वत्ते "नत्थि, भन्ते तेलं" ति आह। तत्थ यथा अन्तोवुत्थत्ता यागुया सद्धिं अकप्पियटेन, "तेलमत्थी" ति होति, नाळिपूरणादीनं वसेन "नत्थी" ति होति। एवं सा पि सञ्जा पटुसाकिच्चं कातुं असमत्थताय नेवसा, सङ्घारावसेससुखुमभावेन विज्जमानत्ता नासज्ञा होति।
३१. किं पनेत्थ साकिच्चं ति? आरम्मणसञ्जाननं चेव विपस्सनाय च विसयभावं उपगन्त्वा निब्बिदाजननं । दहनकिच्वमिव हि सुखोदके तेजोधातु सञ्जाननकिच्चं पेसा पटुं कातुं 'न सक्कोति। सेससमापत्तीसु सझा विय विपस्सनाय विसयभावं उपगन्त्वा निब्बिदाजननं पि कातुं न सक्कोति। नहीं है। अवशिष्ट संस्कारों के रूप में सूक्ष्म रूप से विद्यमान होने से असंज्ञा भी नहीं है। अतः नैवसंज्ञानासंज्ञा है। वह नैवसंज्ञानासंज्ञा है एवं अधिष्ठान के अर्थ में शेष धर्मों का आयतन भी है, अतः नैवसंज्ञानासंज्ञायतन है।
३०. एवं यहाँ न केवल संज्ञा ऐसी है, अपितु वेदना भी नैववेदनानावेदना है, चित्त भी नैवचित्तनाचित्त है, स्पर्श भी नैवस्पर्शनास्पर्श है। शेष सम्प्रयुक्त धर्मों में भी यही विधि है। किन्तु संज्ञा को सर्वोपरि रखते हुए देशना की गयी है-ऐसा जानना चाहिये।
पात्र में लगे हुए तैल आदि की उपमाओं से इस अर्थ का स्पष्टीकरण करना चाहिये।
किसी श्रामणेर ने पात्र में तैल लगाकर रख दिया। यवागू पीने के समय स्थविर ने उसे पुकारा-"पात्र ले आओ।" उसने कहा-"भन्ते, पात्र में तैल है।" तब "ले आओ तैल, श्रामणेर! शीशी भर लूँ" ऐसा कहे जाने पर बोला-"भन्ते, तैल नहीं है।" वहाँ, जैसे पात्र के अन्दर लगा हुआ होने से यवागू के साथ विषम होने के अर्थ में "तैल है" "तैल नहीं है"-ऐसा कहा जाता है; वैसे वह संज्ञा भी संज्ञा के निश्चित कृत्य को करने में समर्थ न होने की संज्ञा नहीं होती, अवशिष्ट संस्कार के रूप में सूक्ष्म रूप से विद्यमान होने से असंज्ञा भी नहीं होती।
३१. यहाँ संज्ञा का कृत्य क्या है? आलम्बन को जानना एवं विपश्यना का विषयभाव प्राप्त कर निर्वेद उत्पन्न करना। शीतोष्ण (कुनकुने) जल में जैसे तेजोधातु (अग्नि) जलाने का कृत्य नहीं कर सकती, वैसे ही यह (सूक्ष्म संज्ञा) संज्ञायतन का निश्चित कृत्य नहीं कर सकती। जैसे १. नेवसा ति एत्थ न-कारो अभावत्थो। नासनं ति एत्थ न-कारो अञ्जत्थो, अ-कारो अभावत्थो व,
असञ्चं अनसळ चा ति अत्थो।