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विसुद्धिमग्गो "इदं हि नेवसञ्जानासचायतनं, आसन्नविज्ञाणञ्चायतनपच्चत्थिका अयं समापत्ती" ति एवं दिट्ठदोसं पि तं आकिञ्चायतनं अञस्स आरम्मणस्स अभावा आरम्मणं करोतेव। यथा किं? दिट्ठदोसं पि ग्रजानं वुत्तिहेतु यथा जनो। यथा हि असंयतं फरुसकायवचीमनोसमाचारं किञ्चि सब्बदिसम्पत्तिं राजानं "फरुससमाचारो अयं" ति एवं दिट्ठदोसं पि अञ्जत्थ वुत्तिं' अलभमानो जनो वुत्तिहेतु निस्साय वत्तति, एवं दिट्टदोसं पि तं आकिञ्चायतनं अखं आरम्मणं अलभमानमिदं नेवसञ्जानसञ्जायतनं आरम्मणं करोतेव। ३८ एवं कुरुमानं च
आरूळहो दीघनिस्सेणिं यथा निस्सेणिबाहकं। पब्बतग्गं च आरूळहो यथा पब्बतमत्थकं॥ यथा वा गिरिमारूळ्हो अत्तनो येव जण्णुकं।
ओलुब्भति, तथेवेतं झानमोलुब्भ वत्तती ति॥ इति साधुजनपामोजत्थाय कते विसुद्धिमग्गे समाधिभावनाधिकारे
आरुप्पनिद्देसो नाम दसमो परिच्छेदो॥
से उस (आकिञ्चन्यायतन) को आलम्बन बनाता ही है, जैसे जीविका के उद्देश्य से लोग ऐसे राजाओं को भी (आश्रय) बनाते ही हैं, जिनमें दोष स्पष्टः दिखायी देते हों।
__ क्योंकि यद्यपि नैवसंज्ञानासंज्ञायतन (की चेतना) द्वारा आकिञ्चन्यायतन में यों दोष देखा जा चुका होता है कि "आकाशानन्त्यायतन इस समापत्ति का समीपवर्ती वैरी है", तथापि अन्य कोई आलम्बन (सम्भव) न होने से यह उस आकिञ्चन्यायतन को आलम्बन बनाता ही है। कैसे? जैसे किसी धनपति में दोष दिखायी देने पर भी लोग जीविका के लिये उन पर (आश्रित होते हैं)। या जैसे कि किन्हीं असंयत मन वचन कर्म से कठोर व्यवहार करने वाले, समग्र सम्पत्तियों के स्वामी राजा के विषय में "यह कठोर व्यवहार वाला है"-यों दोष देखकर भी अन्यत्र जीविका न मिलने पर लोग जीविका! उसका सहारा लेते हैं; वैसे ही दोष प्रत्यक्ष होने पर भी, अन्य आलम्बन की अनुपलब्धता के कारण, उस आकिञ्चन्यायतन को यह नैवसंज्ञानासंज्ञायतन आलम्बन बनाता ही है। .. ३८. एवं ऐसा करते हुए-जैसे लम्बी सीढ़ी पर चढ़ने वाला व्यक्ति (थकान से बचने के लिये) सीढ़ी के हत्थों का या जैसे पहाड़ पर चढ़ने वाला (चढ़ते समय), पहाड़ के पत्थरों का या अपने ही घुटनों का (हाथ टेककर) सहारा लेता है, वैसे ही यह (चतुर्थ आरूप्य) ध्यान का सहारा लेकर टिकता है। साधुजनों के प्रमोदहेतु विरचित विशुद्धिमार्ग ग्रन्थ के समाधिभावनाधिकार में
आरूप्यनिर्देश नामक दशम परिच्छेद समाप्त ॥
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१. वुत्तिं ति। जीविकं।