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विसुद्धिमग्गो दोणियं ठितसुवानवमथु विय परमजेगुच्छभावं उपगच्छति। एवरूपो पि समानो चक्खुस्स आपाथमतीतत्ता अज्झोहरितब्बो होती ति। एवं परिभोगतो पटिक्कूलता पच्चवेक्खितब्वा। (३)
कथं आसयतो? एवं परिभोगं उपगतो च पनेस अन्तो पविसमानो यस्मा बुद्धपच्चेकबुद्धानं पि रञो पि चक्कवत्तिस्स पित्तसेम्हपुब्बलोहितासयेसु चतूसु अञ्चतरो आसयो होति येव, मन्दपुञानं पन चत्तारो पि आसवा होन्ति; तस्मा यस्स पित्तासयो अधिको होति तस्स बहलमधुकतेलमक्खितो विय परमजेगुच्छो होति, यस्स सेम्हासयो अधिको होति तस्स नागबलापण्णरसमक्खितो विय, यस्स पुब्बासयो अधिकों होति तस्स पूतितक्कमक्खितो विय, यस्स लोहितासयो अधिको होति तस्स रजनमक्खितो विय परमजेगुच्छी होती ति । एवं आसयतो पटिक्कूलता पच्चवेक्खितब्बा। (४)
कथं निधानतो? सो इमेसु चतूसु आसयेसु अवतरेन आसयेन मक्खितो अन्तोउदरं पविसित्वा नेव सुवण्णभाजने न मणिरजतादिभाजनेसु निधानं गच्छति। सचे पन दसवस्सिकेन अज्झोहरियति, दस वस्सानि अधोतवच्चकूपसदिसे ओकासे पतिट्ठहति। सचे वीस-तिसचत्तालीस-पास-सट्ठि-सत्तति-असीति-नवुति-वस्सिकेन, सचे वस्ससतिकेन अज्झोहरियति, वस्ससतं अधोतवच्चकूपसदिसे ओकासे पतिट्ठहती ति। एवं निधानतो पटिक्कूलता पच्चवेक्खितब्बा। (५)
वह (आहार) यों पिसकर एवं लसलसा होकर उसी क्षण वर्ण, गन्ध, संस्कार की विशेषताओं से पूर्णत: रहित होकर, कुत्ते की द्रोणी में स्थित कुत्ते के वमन के समान, अत्यधिक घृणाजनक हो जाता है। ऐसा होने पर भी, क्योंकि आँख से दिखायी नहीं देता इसलिये, उसे निगलना सम्भव होता है। यों परिभोग से प्रतिकूलता का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। (३) '
आशय से कैसे? यों परिभोग कर लिये जाने के बाद भीतर जाने पर क्योंकि यह बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों को भी, चक्रवर्ती राजाओं को भी पित्त, कफ, पीब, रक्त-इन चार आशयों (परिपाकों) में से कोई एक आशय अवश्य होता है जबकि मन्दपुण्य वालों में ये चारों आशय होते हैं; अतः जिसमें पित्त का आशय अधिक होता है उसका (उदरस्थित आहार) महुआ के गाढ़े तेल से चुपड़े हुए के समान अत्यन्त घृणित होता है। जिसमें कफ का आशय अधिक होता है उसका नागवला के पत्ते के रस से लिपटे हुए के समान...जिसमें पीब का आशय अधिक होता है, उसका सड़ी छाछ से लिपटे हुए के समान...जिसमें रक्त का आशय अधिक होता है, उसका (लाल) रंग से लिपटे हुए के समान अत्यधिक घृणित होता है। यों आशय से प्रतिकूलता का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। (४)
निधान से कैसे? वह इन चार आशयों में से जिस किसी भी आशय से लिपटा हुआ हो, पेट के भीतर जाने पर न तो सोने के पात्र में, न मणि या रजत आदि के पात्र में रखा गया होता है। अपितु यदि वह दसवर्षीय (व्यक्ति) द्वारा खाया गया होता है जो दस वर्षों से न धोये गये शौचालय (शौच के लिये बनाया गया कुएँ जैसे गहरा गड्डा) के समान खाली स्थान में रहता है। यदि बीस-तीस-चालीस-पचास-साठ-सत्तर-अस्सी-नब्बे वर्ष वाले या सौ वर्ष वाले के द्वारा १. सुवानदोणियं ति। सारमेय्यानं भुञ्जनकअम्बणे।