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समाधिनिसो
दिसम्परिकिण्णं पच्चत्थरणं अक्कमितब्बं होति । ततो अप्पेकदा मूसिकजतुकवच्चादीहि उपहतत्ता अन्तोगब्भतो पटिक्कूलतरं पमुखं दट्ठब्बं होति । ततो उलूक- पारावतादिवच्चसम्मक्खितत्ता उपरिमतलतो पटिक्कूलतरं हेट्ठिमतलं । ततो कदाचि कदाचि वातेरितेहि पुराणतिणपणेहि गिलानसामणेरानं मुत्तकरीसखेळसिङ्घाणिकाहि वस्सकाले उदकचिक्खल्लादीहि च सङ्किलिट्ठत्ता हेट्ठिमतलतो पटिक्कूलतरं परिवेणं । परिवेणतो पटिक्कूलतरा विहाररच्छा दट्ठब्बा होति ।
अनुपुब्बेन पन बोधिं च चेतियं च वन्दित्वा वितक्कमाळके' ठितेन मुत्तरासिसदिसं चेतियं मोरपिञ्छकलापमनोहरं बोधिं देवविमानसम्पत्तिसस्सिरीकं सेनासनं च अनपलोकेत्वा एवरूपं नाम रमणीयं पदेसं पिट्ठितो कत्वा आहारहेतु गन्तब्बं भविस्सती ति पक्कमित्वा गाममग्गं पटिपन्नेन खाणुकण्टकमग्गो पि उदकवेगभिन्नविसममग्गो पि दट्टब्बो होति ।
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ततो गण्डं पटिच्छादेन्तेन विय निवासनं निवासेत्वा वणचोळकं बन्धन्तेन विय कायबन्धनं बन्धित्वा अट्ठिसङ्घातं पटिच्छादेन्तेन विय चीवरं पारुपित्वा भेसज्जकपालं नीहरन्तेन विय पत्तं नीहरित्वा गामद्वारसमीपं पापुणन्तेन हत्थिकुणप - अस्सकणप- गोकुणप - महिंस
के सम्पन्न, पवित्र, शीतल रमणीय भूभागों, तपोवनों को अथवा विवेक के प्रति रति को छोड़ श्मशान की ओर शृगाल' के गमन के समान, आहार के लिये गाँव की ओर उसे जाना पड़ता है।
यों जाने वाले को मंच या चौकी से उतरने के बाद पैरों की धूल, छिपकली के मल आदि से मैले गलीचे को पार करना पड़ता है। इसके बाद दरवाजे के पास (पहुँचने पर) कमरे से भी अधिक गन्दे (प्रतिकूल), मूषक, चमगादड़ आदि के मल को देखना पड़ता है। फिर उल्लू कबूतर आदि के मल के कारण ऊपरी मंजिल से भी गन्दी निचली मंजिल को... इसके बाद कभीकभी हवा में उड़ते सूखे पत्तों, बीमार श्रामणेरों के मूत्र, मल, कफ, नाक का मैल आदि एवं वर्षा में पानी कीचड़ आदि से गन्दे होने के कारण निचली मंजिल से भी मलिन विहार की ओर जाने वाले मार्ग को देखना पड़ता है ।
क्रम से बोधि (-वृक्ष) एवं चैत्य की वन्दनाकर, वितर्कमाल' में खड़े हुए (भिक्षु) को मुक्ताराशि के समान चैत्य, मोरपंख के समान मनोहर बोधि ( - वृक्ष) एवं देवविमान के समान सम्पत्ति - श्रीयुक्त शयनासन की उपेक्षा करते हुए, ऐसे रमणीय प्रदेश की ओर पीठ फेरकर 'आहार हेतु जाना होगा' ऐसा सोचकर, गाँव के मार्ग पर चलते हुए कण्टकाकीर्ण मार्ग या जलप्रवाह से छिन्न-भिन्न मार्ग को भी देखना होता है।
तब जैसे कोई व्रण को ढँके वैसे वस्त्र पहनकर, जैसे घाव को बाँधे वैसे शरीर को वस्त्र से बाँधकर, जैसे अस्थिसमूह को ढँके-वैसे चीवर ओढ़कर, जैसे कोई भैषज्य का कपाल लिये हुए हो, वैसे पात्र लेकर जब ग्राम के द्वार के समीप जाता है, तब हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, मनुष्य, सर्प, कुत्ते (आदि) के शवों को भी देखना पड़ता है। न केवल देखना पड़ता है अपितु घ्राण (इन्द्रिय) को अप्रिय लगने वाली गन्ध भी सहनी पड़ती है ।
१. वितमाळके ति । " कत्थु नु खो अज्ज भिक्खाय चरितब्बं" ति आदिना वितक्कनमाळके ।
२. " आज भिक्षाटन के लिये कहाँ जाना ठीक होगा"-यों सोचना वितर्क है। जिस स्थान पर खड़ा होकर ऐसा सोचता है, उसे वितर्कमाल कहते हैं।