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विसुद्धिमग्गो ति आदिना परिकम्ममनसिकारेन अन्तरहिते तस्मि विज्ञाणे तस्स अपगमसङ्घातं अभावमेव पस्सन्तो विहरति।
___ एत्तावता चेस "सब्बसो विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म नत्थि किञ्ची ति आकिञ्चञायतनं उपसम्पज विहरती" (अभि० २/३९५) ति वुच्चति ।
२२. इधा पि सब्बसो ति। इदं वुत्तनयमेव। विज्ञाणञ्चायतनं ति। एत्था पि च पुब्बे वुत्तनयेनेव झानं पि विज्ञाणञ्चायतनं, आरम्मणं पि। आरम्मणं पि.हि पुरिमनयेनेव विज्ञाणञ्चं च तं, दुतियस्स आरुप्पज्झानस्स आरम्मणत्ता देवानं देवायतनं विय अधिट्ठानटेन आयतनं चा ति विज्ञाणञ्चायतनं। तथा विज्ञाणं च तं तस्सेव झानस्स सञ्जातिहेतुत्ता "कम्बोजा अस्सानं आयतनं" ति आदीनि विय सञ्जातिदेसटेन आयतनं चा ति पि विज्ञाणञ्चायतनं । एवमेतं झालं च आरम्मणं चा ति उभयं पि अप्पवत्तिकरणेन च अमनसिकरणेन च समतिक्कमित्वा व यस्मा इदं आकिञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहातब्बं, तस्मा उभयं पेतं एकज्झं कत्वा "विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्मा" ति इदं वुत्तं ति वेदितब्बं ।'
नत्थि किञ्ची ति। नत्थि नत्थि, सुखं सुखं, विवित्तं विवित्तं ति एवं मनसिकरोन्तो ति वुत्तं होति। यं पि विभङ्गे वुत्तं-"नत्थि किञ्ची ति तं येव विज्ञाणं अभावेति विभावेति अन्तरधापेति, नस्थि किञ्ची ति पस्सति, तेन वुच्चति-नत्थि किञ्ची" ति, तं किञ्चापि खयतो
प्रदेश से बाहर चले गये"; अपितु उसे शून्य, रिक्त या नहीं है' इस रूप में देखता है। वैसे ही, अर्पणाचित्त उत्पन्न हो जाने पर वह भिक्षु जो पहले आकाश (के विषय) में प्रवृत्त विज्ञान को विज्ञानानन्त्यायतन ध्यान-चक्षु से देखते हुए विहार करता था, अब "नहीं है, नहीं है" आदि प्रारम्भिक मनस्कार द्वारा उस अन्तर्हित विज्ञान में उसके अपगम (लोप) संज्ञक अभाव को ही देखते हुए साधना करता है।
इसी के विषय में यह कहा गया है-"सर्वथा विज्ञानानन्त्यायतन का अतिक्रमण कर, 'कुछ नहीं है' यों आकिञ्चन्यायतन को प्राप्त कर साधना करता है।" (अभि० २/३९५)।
२२. यहाँ भी, सब्बसो-यह पूर्वोक्त व्याख्यानुसार ही है।
विाणञ्चायतनं-यहाँ भी पूर्वोक्त के अनुसार ही, ध्यान भी विज्ञानानन्त्यायतन है एवं आलम्बन भी। आलम्बन भी, पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही, विज्ञानानन्त्यायतन इसलिये है क्योंकि वह विज्ञानानन्त्य है, साथ ही द्वितीय आरूप्य ध्यान का आलम्बन होने से अधिष्ठान के अर्थ में आयतन है, जैसे देवों का देवायतन। और भी, वह विज्ञान है एवं उसी ध्यान की उत्पत्ति का हेतु होने से "कम्बोज अश्वों का आयतन है" आदि के समान उत्पत्तिदेश के अर्थ में आयतन है, इसलिये भी विज्ञानानन्त्यायतन है। इस प्रकार, क्योंकि इस ध्यान एवं आलम्बन दोनों को ही प्रवृत्त न करने, मनस्कार न करने से अतिक्रमण करते हुए इस आकिञ्चन्यायतन को प्राप्त कर विहार करना चाहिये, अत: दोनों के लिये ही "विज्ञानानन्त्यायतन का अतिक्रमण कर"ऐसा कहा गया है-जानना चाहिये।
नस्थि किञ्चि-तात्पर्य यह है कि वह "नहीं है, नहीं है, या शून्य शून्य, या रिक्त रिक्त"यों मनस्कार करता है। विभङ्ग में भी यह जो कहा गया है-"कुछ नहीं है" इस रूप में उसी विज्ञान का अभाव करता है, अन्तर्हित करता है, "कुछ नहीं है" इस रूप में देखता है। इसलिये