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विसुद्धिमग्गो ५. सो तत्थ एवं आदीनवं दिस्वा निकन्तिं परियादाय आकासानञ्चायतनं सन्ततो अनन्ततो मनसिकरित्वा चक्कवाळपरियन्तं वा यत्तकं इच्छति तत्तकं वा कसिणं पत्थरित्वा तेन फुट्ठोकासं "आकासो आकासो" ति वा, "अनन्तो आकासो" ति वा मनसिकरोन्तो उग्घाटेति। कसिणं उग्घाटेन्तो हि नेव किलशं विय संवेल्लेति, न कपालतो पूवं विय उद्धरति। केवलं पन तं नेव आवजेति, न मनसि करोति, न पच्चवेक्खति। अनावज्जेन्तो अमनसिकरोन्तो अप्पच्चवेक्खन्तो च, अज्ञदत्थु तेन फुट्ठोकासं"आकासो आकासो" ति मनसिकरोन्तो कसिणं उग्घाटेति नाम।
कसिणं पि उग्घाटियमानं नेव उब्बट्टति न विवट्टति । केवलं इमस्स अमनसिकारं च "ओकासो आकासो'' ति मनसिकारं च पटिच्च उग्घाटितं नाम होति, कसिणुग्घाटिमाकासमत्तं पायति। कसिणुग्घाटिमाकासं ति वा, कसिणफुट्ठोकासो ति वा, कसिणविवित्ताकासं ति वा, सब्बमेतं एकमेव।
६. सो तं कसिणुग्घाटिमाकासनिमित्तं "आकासो आकासो' ति पुनप्पुन आवजेति, तक्काहतं वितक्काहतं करोति। तस्सेवं पुनप्पुनं आवजयतो तक्काहतं वितक्काहतं करोतो नीवरणानि विक्खम्भन्ति, सति सन्तिट्ठति, उपचारेन चित्तं समाधियति । सो तं निमित्तं पुनप्पुनं आसेवति, भावेति, बहुलीकरोति।
(ध्यान) आलम्बन बनाता है", "सौमनस्य उसका समीपवर्ती वैरी है", एवं शान्त विमोक्ष की अपेक्षा स्थूल है। किन्तु उस (चतुर्थ ध्यान) में अङ्ग की स्थूलता नहीं होती। रूप (रूपावचर चतुर्थ ध्यान) में भी वे ही दो अङ्ग होते हैं, जो आरूप्य (अरूपावचर ध्यान) में होते हैं। .
५. वह उनमें यों दोष देखकर एवं उनके प्रति आसक्ति को समाप्त कर, आकाशानन्त्यायतन के विषय में 'यह शान्त है, अनन्त है' यों मनस्कार करते हुए ब्रह्माण्डपर्यन्त, या जहाँ तक चाहे वहाँ तक, कसिण का प्रसार करता है (ध्यान का आलम्बन बनाता है)। तब उस कसिण द्वारा घेरे गये आकाश के विषय में "आकाश, आकाश" या "अनन्त आकाश"-यों मनस्कार करते हुए (उस कसिण को) मिटा देता है। कसिण को मिटाते समय न तो चटाई के समान लपेटता है, न ही कढ़ाई से पुए के समान निकालता है; अपितु केवल उसके प्रति ध्यान नहीं देता, मन नहीं लगाता, प्रत्यवेक्षण नहीं करता। ध्यान न देते हुए, मन न लगाते हुए, प्रत्यवेक्षण न करते हुए; किसी भी तरह से उसके द्वारा घेरे गये आकाश का "आकाश, आकाश"-यों मनस्कार करने वाले के लिये कहा जाता है कि वह कसिण को मिटा देता है।
मिटाये जाते समय कसिण भी न तो उठाया जाता है, न लपेटा जाता है। केवल इस (योगी) के द्वारा मनस्कार न किये जाने से, और "आकाश, आकाश"-यों मनस्कार किये जाने से 'मिटाया गया' कहा जाता है। जिस स्थान से कसिण मिटा दिया जाता है, वह आकाशमात्र जान पड़ता है। जहाँ से कसिण मिटा दिया गया हो वह आकाश, जिसे कसिण ने अधिकृत कर रखा हो वह आकाश, तथा कसिण से असम्पृक्त आकाश-ये सब (वस्तुतः) एक ही हैं।
६. जहाँ से कसिण मिटाया था वहाँ के उस आकाशनिमित्त के प्रति वह "आकाश, आकाश" यों बार-बार ध्यान देता है और उस पर तर्क-वितर्क करता है। बार बार ध्यान देते,