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१०. आरुप्पनिद्देसो
दसमो परिच्छेदो १. पठमारुप्प( आकासानञ्चायतन)कथा १. ब्रह्मविहारानन्तरं उद्दिढेसु पन चतूसु आरुप्पेसु आकासानञ्चायतनं ताव भावेतुकामो "दिस्सन्ति खो पन रूपाधिकरणं दण्डादान-सत्थादान-कलह-विगह-विवादा, नत्थि खो पनेतं सब्बसो आरुप्पे ति। सो इति पटिसवाय रूपानं येव निब्बिदाय विरागाय निरोधाय पटिपन्नो होती" (म० नि० २/५६७) ति वचनतो एतेसं दण्डादानादीनं चेव चक्खुसोतरोगादीनं च आबाध-सहस्सानं वसेन करजरूपे आदीनवं दिस्वा तस्स समतिक्कमाय ठपेत्वा, परिच्छिन्नाकासकसिणं, नवसु पथवीकसिणादीसु अवतरस्मि चतुत्थज्झानं उप्पादेति।।
२. तस्स किञ्चापि रूपावचरचतुत्थज्झानवसेन करजरूपं अतिक्कन्तं होति, अथ खो कसिणरूपं पि यस्मा तप्पटिभागमेव, तस्मा तं पि समतिक्कमितुकामो होति।
कथं? यथा अहिभीरुको पुरिसो अरजे सप्पेन अनुबद्धो वेगेन पलायित्वा पलातटाने लेखाचित्तं तालपण्णं वा वल्लिं वा रज्जु वा फलिताय वा पन पथविया फलितन्तरं दिस्वा
१०. आरूप्यनिर्देश
दशम परिच्छेद १. प्रथम आरूप्य (आकाशानन्त्यायतन) १. ब्रह्मविहार के अनन्तर उपदिष्ट चार आरूप्यों में आकाशानन्त्यायतन की भावना का अभिलाषी-"रूप के फलस्वरूप दण्ड रखना, शस्त्र रखना, कलह, विग्रह, विवाद दिखायी देते हैं; किन्तु इ1 (सब) का आरूप्य में सर्वथा अभाव है। वह (भिक्षु) यही सोचकर केवल रूपों के प्रति ही निर्वेद, विराग एवं निरोध के लिये प्रतिपन्न होता है।" (म० नि० २/५६७) इस वचन के अनुसार इन दण्ड रखना आदि एवं चक्षु, श्रोत्र के रोग आदि तथा सहस्रों विपत्तियों के कारण कर्मज रूप में दोष देखकर, उसकी सीमा से परे जाने के लिये परिच्छिनाकाश कसिण को छोड़ देता है। तब पृथ्वी आदि नौ कसिणों में से किसी एक में चतुर्थ ध्यान उत्पन्न करता है।
२. रूपावचर चतुर्थ ध्यान के कारण वह कर्मज़ रूप की सीमा से परे हो जाता है; किन्तु क्योंकि कसिण रूप भी उसके लिये विपरीत ही है, अतः उसका भी अतिक्रमण करना चाहता है। कैसे?
जैसे कि सर्प से डरने वाले किसी पुरुष के पीछे जङ्गल में कोई सर्प पड़ जाय और वह तेजी से भाग खड़ा हो। वह जहाँ भागकर जाय, वहाँ (सर्प की आकृति से मिलती-जुलती या १. करजरूपे ति। करं-कम्म, तेन समुट्ठिते रूपे। कम्मजरूपेत्यत्थो। २. फलितन्तरं ति। अजं विवरं। दिस्वा ति। दूरतो दिस्वा।