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विसुद्धिमग्गो
७२. उपेक्खाविहारिस्स पन " सत्ता सुखिता वा होन्तु, दुक्खतो वा विमुच्चन्तु सम्पत्तसुखतो वा मा विमुच्चन्तू" ति आभोगाभावतो सुखदुक्खादिपरमत्थगाहविमुखभावतो अविज्जमानग्गहणदुक्खं चित्तं होति । अथस्स परमत्थगाहतो विमुखभावपरिचितचित्तस्स परमत्थो अविज्ज-मानग्गहणदुक्खचित्तस्स च अनुक्कमाधिगतं विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म सभावतो अविज्जमाने परमत्थभूतस्स विञ्ञाणस्स अभावे चित्तं उपसंहरतो अप्पकसिरेनेव तत्थ चित्तं पक्खन्दति। इति उपेक्खा आकिञ्चञ्ञायतनस्सँ उपनिस्सयो होति, न ततो परं; तस्मा 'आकिञ्चञयतनपरमा' ति वृत्ताति ।
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७३. एवं सुभपरमादिवसेन एतासं आनुभावं विदित्वा पुन सब्बा पेता दानादीनं सब्बकल्याणधम्मानं परिपूरिका ति वेदितब्बा । सत्तेसु हि हितज्झासयताय सत्तानं दुक्खा - सहनताय, पत्तसम्पत्तिविसेसानं चिरट्ठितिकामताय, सब्बसत्तेसु च पक्खपाताभावेन समप्पवत्तचित्ता महासत्ता "इमस्स दातब्बं, इमस्स न दातब्बं" ति विभागं अकत्वा सब्बसत्तानं सुखनिदानं दानं देन्ति। तेसं उपघातं परिवज्जयन्ता सीलं समादियन्ति । सीलपरिपूरणत्थं नेक्खम्मं भजन्ति । सत्तानं हिताहितेसु असम्मोहत्थाय पञ्ञ परियोदन्ति । सत्तानं हितसुखत्थाय निच्चं विरियमारभन्ति । उत्तमविरियवसेन वीरभावं पत्ता पि च सत्तानं नानप्पकारकं अपराधं खमन्ति । " इदं वो दस्साम, करिस्सामा" ति कतं पटि न विसंवादेन्ति । तेसं हितसुखाय अविचलाधिट्ठाना होन्ति । तेसु अविचलाय मेत्ताय पुब्बकारिनो होन्ति । उपेक्खाय पच्चुपकारं
प्रवेश कर जाता है । यों, मुदिता आकाशानन्त्यायतन का ही मूलाधार होती है, अगले की नहीं । अतः उसे 'विज्ञानानन्त्यायतन का आधार' कहा गया है।
७२. उपेक्षाविहारी में “सत्त्व सुखी हों", या "दुःख से छूट जायँ " या प्राप्त सम्पत्तिसुख उनसे छिन न जाय' – ऐसा मनस्कार नहीं होता। अतः सुख-दुःखादि परमार्थ (वस्तुतः विद्यमान)
ग्रहण से विमुख होने के कारण, उसका चित्त (परमार्थतः ) अविद्यमान का ग्रहण करने में दक्ष होता है । यह, चित्त परमार्थग्रहण के प्रति विमुखता से परिचित तथा परमार्थतः अविद्यमान के ग्रहण में दक्ष होता है; क्रम से अधिगत विज्ञानानन्त्यायतन का समतिक्रमण कर स्वभावतः अविद्यमान में (अर्थात् ) परमार्थभूत विज्ञान के अभाव में चित्त को जब लगाता है, तब अल्प प्रयास से ही चित्त उसमें प्रवेश कर जाता है । यों; उपेक्षा आकिञ्चन्यायतन का आधार होती है, उससे आगे की नहीं। इसलिये उसे 'आकिञ्चन्यायतन का आधार' कहा गया है।
७३. इस प्रकार, 'शुभ के आधार' के रूप में इनकी क्षमता जानने के बाद यह जानना चाहिये कि ये सभी दान आदि सर्वकल्याणधर्मों को पूर्णता तक पहुँचाने वाली हैं। सत्त्वों के प्रति हितैषिता होने से, सत्त्वों का दुःख न सहन करने से, प्राप्त सम्पत्ति की चिरस्थिति चाहने से, एवं सब सत्त्वों के प्रति पक्षपात के अभाव से, सबको समान मानने वाले महासत्व 'इसे देना चाहिये, इसे नहीं देना चाहिये' – ऐसा भेदभाव नहीं करते । सब सत्त्वों के लिये सुखकारी दान देते हैं। उन्हें हानि न पहुँचाते हुए, शील का ग्रहण करते हैं। शील की परिपूर्णता के लिये नैष्काम्य (त्याग) का अभ्यास करते हैं। सत्त्वों के हिताहित के विषय में सम्मोह (मिथ्या धारण) से बचने के लिये प्रज्ञा को पर्यवदात (परिशुद्ध) करते हैं। सत्त्वों के हितसुख के लिये सर्वदा प्रयासरत रहते हैं । उत्तम