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विसुद्धिमग्गो एवं भावितो होति बहुलीकतो, ततो ते, भिक्खु, एवं सिक्खितब्बं-करुणा मे चेतोविमुत्ती" ति आदिमाह।
६७. एवं मेत्तादिषुब्बङ्गमं चतुक्कपञ्चकज्झानवसेन भावनं दस्सेत्वा पुन कायानुपस्सनादिपुब्बङ्गमं दस्सेतुं "यतो खो ते, भिक्खु, अयं समाधि एवं भावितो होति बहुलीकतो, ततो ते भिक्खु एवं सिक्खितब्बं काये कायानुपस्सी विहरिस्सामी" ति आदिं वत्वा "यतो खो ते, भिक्खु, अयं समाधि एवं भावितो भविस्सति सुभावितो, ततो त्वं भिक्खु येन येनेव गग्घसि', फासुजेव गग्घसि, यत्थ यत्थेव ठस्ससि फासुजेव ठस्ससि, यत्थ यत्थेव निसीदिस्ससि फासुजेव निसीदिस्सति, यत्थ यत्थेव सेय्यं कप्पेस्ससि, फासुब्रेव सेंय्यं कप्पेस्ससी" ति ति अरहत्तनिकूटेन देसनं समापेसि। तस्मा तिकचतुक्कज्झानिका व मेत्तादयो, उपेक्खा पन अवसेसएकज्झानिका वा ति वेदितब्बा। तथैव च अभिधम्मे (अभि० २/३३१) विभत्ता ति।
६८. एवं तिकचतुज्झानवसेन चेव अवसेसएकज्झानवसेन च द्विधा ठितानं पि एतासं सुभपरमादिवसेन अञ्जमलं असदिसो आनुभावविसेसो वेदितब्बो। हलिद्दवसनसुत्तस्मि हि एता सुभपरमादिभावेन विसेसेत्वा वुत्ता। यथाह-"सुभपरमाहं, भिक्खवे, मेत्तं, चेतोविमुत्तिं वदामि...आकासानञ्चायतनपरमाहं, भिक्खवे, करुणं चेतोविमुत्तिं वदामि...विज्ञाणञ्चा
जब तुम्हारी यह समाधि यों भावित अभ्यस्त हो जाय, तब, भिक्षु! तुम्हें यों सीखना चाहिये"करुणा मेरे चित्त की विमुक्ति है"-आदि कहा गया है।
६७. यों मैत्री आदि के पूर्व भी चतुष्क-पञ्चक ध्यान के रूप में भावना की जाती है, यह दिखलाया गया है। पुनः, कायानुपश्यना आदि की अपेक्षा पूर्ववर्ती होना प्रदर्शित करने के लिये"भिक्षु, जब तुम्हारी यह समाधि यों भावित, अभ्यस्त हो जाय, तब, भिक्षु, तुम्हें यह सीखना चाहिये-'काय में कायानुपश्यी होकर विहार करूँगा"-यों कहकर, अर्हत्त्व (के वर्णन) तक ले जाकर इस देशना का इस प्रकार समापन किया गया है-"भिक्षु, जब तुम्हारी यह समाधि यों भावित, भली भाँति भावित हो जायगी तब, भिक्षु, तुम जहाँ जहाँ जाओगे सुविधा के साथ ही जाओगे; जहाँ जहाँ खड़े होगे सुविधा के साथ ही खड़े होगे; जहाँ जहाँ बैठोगे सुविधापूर्वक ही बैठोगे, जहाँ जहाँ शयन करोगे सुविधापूर्वक ही शयन करोगे, इसलिये मैत्री आदि त्रिक-चतुष्क ध्यान वाली ही हैं, अथवा (दूसरे शब्दों में) उपेक्षा अवशेष एक (अन्तिम) ध्यान वाली है, यह जानना चाहिये। अभिधर्म (अभि० २/३३१) में वे वैसे ही विभक्त हैं।
६८. यों "त्रिक-चतुष्क ध्यान' एवं 'शेष एक ध्यान' के अनुसार (मैत्री आदि) यद्यपि दो प्रकार की हैं, तथापि 'शुभ परम' आदि के अनुसार उनकी क्षमता (अनुभाव) की परस्पर असमान जानना चाहिये। हलिहवसनसुत्त में इन्हें 'शुभपरम' आदि भाव से विशेषित कर बतलाया गया है। जैसा कि कहा गया है-"भिक्षुओ, मैं 'शुभ' को मैत्री-चित्त-विमुक्ति का चरम (परम) कहता हूँ.. भिक्षुओ! मैं आकाशानन्त्यायतन को करुणाचित्तविमुक्ति का चरम कहता हूँ...भिक्षुओ, मैं
१. गग्घसी ति। गमिस्ससि। २. हलिहवसनसुत्तास्मिं ति। संयुत्तनिकायस्स ४६. बोज्झङ्गसंयुत्तट्ठ-मेत्तासहगतसुत्ते ।