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ब्रह्मविहारनिद्देसो
१८७ पटिपज्जितब्ब, हिताकारप्पवत्तिलक्खणा च मेत्ता। ततो एवं पत्थितहितानं सत्तानं दुक्खाभिभवं दिस्वा वा सुत्वा वा सम्भावेत्वा वा दुक्खापनयनाकारप्पवत्तिवसेन, दुक्खापनयनाकारप्पवत्तिलक्खणा च करुणा । अथेवं पत्थितहितानं पत्थितदुक्खापगमानं च नेसं सम्पत्तिं दिस्वा सम्पत्तिपमोदनवसेन पमोदनलक्खणा च मुदिता। ततो परं पन कत्तब्बाभावतो अज्झुपेक्खकत्तसङ्कातेन मज्झत्ताकारेन पटिपज्जितब्बं, मज्झत्ताकारप्पवत्तिलक्खणा च उपेक्खा। तस्मा इतो हितादिआकारवसा पनासं पठमं मेत्ता वुत्ता, अथ करुणा, मुदिता, उपेक्खा ति-अयं कमो वेदितब्बो।
६१. यस्मा पन सब्बापेता अप्पमाणे गोचरे पवत्तन्ति। अप्पमाणा हि सत्ता एतासं गोचरभूता। एकसत्तस्सा पि च एत्तके पदेसे मेत्तादयो भावेतब्बा ति एवं पमाणं अगहेत्वा सकलफरणवसेनेव पवत्ता ति। तेन वुत्तं
"विसुद्धिमग्गादिवसा चतस्सो हितादिआकारवसा पनासं।
कमो, पवत्तन्ति च अप्पमाणे ता गोचरे येन तदप्पमञा" ति॥ ६२. एवं अप्पमाणगोचरताय एकलक्खणासु चापि एतासु पुरिमा तिस्सो तिकचतुक्कज्झानिका व होन्ति। कस्मा? सोमनस्साविप्पयोगतो। कस्मा पनासं सोमनस्सेन अविप्पयोगो ति? दोमनस्ससमुट्ठितानं व्यापादादीनं निस्सरणत्ता। पच्छिमा पन अवसेस-एकज्झानिका व। कस्मा? उपेक्खावेदनासम्पयोगतो। न हि सत्तेसु मज्झत्ताकारप्पवत्ता ब्रह्मविहारुपेक्खा उपेक्खावेदनं विना वत्तती ति।
सत्त्वों के प्रति प्रवृत्त होना चाहिये एवं हित के रूप में प्रवृत्त होना मैत्री का लक्षण हैं; तत्पश्चात् जिनका हित चाहा गया है उन सत्त्वों को दुःख से अभिभूत देख या सुनकर या स्वयं समझकर, दुःख दूर करने के रूप में (सत्त्वों के प्रति प्रवृत्त होना चाहिये)। एवं करुणा का लक्षण दुःखापनयन के रूप में प्रवृत्त होता है-एवं जिनका हित चाहा गया एवं दुःखों के दूर होने की कामना की गयी, ऐसे इन (सत्त्वों) की सम्पत्ति देखकर उस सम्पत्ति से प्रमुदित होने के रूप में (प्रवृत्त होना चाहिये) एवं मुदिता का लक्षण प्रमुदित होना है; तत्पश्चात् कुछ करने योग्य शेष न होने से उपेक्षासंज्ञक मध्यस्थता के रूप में प्रवृत्त होना है; इसलिये उनके (उद्देश्य) हित आदि के अनुसार मैत्री को पहले कहा गया है फिर करुणा, मुदिता, उपेक्षा को-यह क्रम समझना चाहिये। (ख)
६१. क्योंकि ये सभी अप्रमाणगोचर में प्रवृत्त होती हैं, अप्रमाण सत्त्व इनके गोचर हैं, "मैत्री आदि की भावना केवल एक सत्त्व के प्रति या एक ही प्रदेश में करनी चाहिये"-ऐसी सीमा का ग्रहण न करते हुए सभी को आलम्बन बना कर प्रवृत्त होती हैं; इसलिये कहा गया है
"विशुद्धि के मार्ग के अनुसार ये चार हैं। हित आदि के अनुसार इनका क्रम हैं। वे अप्रमाण गोचर में प्रवृत्त होती हैं अतः अप्रमाण हैं।" (ग)
६२. यों ये चारों 'अप्रमाणगोचर' के रूप में एक ही लक्षण वाली हैं। फिर भी इनमें से पूर्व की तीन त्रिक एवं चतुष्क ध्यान वाली (क्रमशः चतुष्क एवं पञ्चक नय के अनुसार) ही होती है। (अन्तिम चतुर्थ या पञ्चम ध्यान उनमें नहीं होता।) क्यों? सौमनस्य के असंयोग से। क्यों सौमनस्य का असंयोग है ? दौर्मनस्य से समुत्थित व्यापाद आदि का निःसरण होने के कारण।